Tuesday, 29 January 2019


लोक साहित्य एवं लोककला
भारत भूमि प्राचीन काल से ही अपनी सांस्कृतिक संपदा के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहाँ विभिन्न प्रकार की संस्कृतियां, धार्मिक संस्थाएं, वेश-भूषा, बोलियां तथा लोककलाएं इत्यादि अनेकों रूपों में देखने को मिलती हैं। विभिन्न सांस्कृतिक प्रदेश भिन्न-भिन्न प्रकार की लोक संस्कृतियों तथा लोककलाओं के लिए प्रसिद्ध हैं और लोककलाओं अपनी एक अलग ही पहचान होती है, क्योंकि लोककलाएं किसी विशिष्ट क्षेत्र तथा किसी विशिष्ट समुदाय से संबंधित होती हैं। भारत में लोककला का विशेष महत्व इसलिए भी होता है, क्योंकि इन लोककलाओं का अपना एक विशेष उद्भव, इतिहास और संघर्ष रहा है। दूसरा प्रमुख तथ्य यह भी है कि लोककलाएं किसी विशेष समुदाय अथवा जाति से संबंध रखती रही हैं। इसके साथ ही साथ इन लोककलाओं में इनकी आपसी ताल-मेल और निपुणता परिलक्षित होता है। लोककलाओं में लोक धर्म, लोक विश्वास, लोक वार्ता, लोकमत, लोक संस्कृति, लोक मिथक इत्यादि भी प्रमुख भूमिका निभाते हैं। भारतीय परिदृश्य में लोककला के विकास का इतिहास अति प्राचीन है। लेकिन इनके अध्ययन की शुरूआत बहुत अधिक पुरानी नहीं है। वर्तमान समय में विभिन्न क्षेत्रों की लोककलाओं पर अध्ययन प्रारंभ हो चुके हैं। जहां तक विश्व स्तर कि बात है, लोककलाओं के अध्ययन और संरक्षण की शुरूआत यूरोपीय देशों से मानी जा सकती है (त्रिपाठी, 2013)
            लोककला, मानवीय चेतना के विकास के साथ सहज-स्फूर्त चेष्टाएं हैं। उसके सौंदर्यपरक मानसिक अनुषंगों की अभिव्यक्ति के रूप ये अस्तित्ववान हुईं। कलाओं की सृष्टि के साथ ही मानव सभ्यता के विकास का सूत्रपात हुआ। मनुष्य के भीतर की स्फुटित प्रेरणा विभिन्न कला-माध्यमों में बाह्य प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप ही उजागर हुईं। मनुष्य की आदिम कलाएं उसकी श्रम-मूलक चेष्टाओं से ही निष्पन्न हुई हैं। मनुष्य की अपनी मानसिक दशाएं- एकांतिकता, रमण-मूलक उत्तेजना क्षण, भूख-प्यास, समूह-भाव, विपरीत लिंगी आकर्षण, उम्र के उतार-चढ़ाव और जैविक परिवर्तन भी लोककलाओं के लिए प्रेरणा-बिंदु रहे हैं। लोककलाएं वैयक्तिक और सामूहिक संघातों की सहजात अभिव्यक्तियां हैं। लोककलाएं जीवन के अंग-प्रत्यंग से जुड़ी रहती थी। कठिन शारीरिक श्रम के काम संगीत से हल्के किए जाते थे। पेड़ काटना, नाव चलाना, बोझ खीचना, कपड़े धुलना, चक्की चलाना इत्यादि किसी-न-किसी प्रकार के संगीत से जुड़े होते थे। भारतवासियों का जीवन सदा से कलात्मक रहा है और आज भी है। सीधे शब्दों में “भारत की अनेक जातियों व जनजातियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही पारंपरिक कलाओं को ही लोककला कहते हैं”।
            यूरोप में लोक संस्कृति के अध्ययन का इतिहास बहुत प्राचीन नहीं है। इस महाद्वीप के विभिन्न देशों में पृथक-पृथक रीति-रिवाज, आचार-विचार और रहन-सहन की परंपरा प्रचलित थी। परंतु इसके अध्ययन की ओर विद्वानों का ध्यान 18वीं शताब्दी के प्रारंभ से पूर्व नहीं गया था। यूरोप में भौतिक-विज्ञान, जीव-विज्ञान और मानव-विज्ञान के क्षेत्रों में कुछ ऐसे भौतिकवादी सिद्धांतों की स्थापना हुई जिनसे प्रभावित होकर विद्वानों ने अपने देश की सामाजिक परंपराओं, धार्मिक विश्वासों तथा राजनितिक संस्थाओं का अध्ययन प्रारंभ किया। 18वीं शताब्दी के प्रारंभ में इन उपर्युक्त विषयों का अनुसंधान लोकप्रिय पुरावशेष (Popular Antiquities) के नाम से प्रसिद्ध था। उस समय के लोकप्रिय पुरावशेष के अंतर्गत आचार-विचार, रहन-सहन, रीति-रिवाज और विधि-विधानों का वर्णन किया जाता था। 1774 ई॰ में जे॰ जी॰ हर्डर ने फॉक-स्लाइड (Volkslied) अर्थात फॉकसांग (लोकगीत) का प्रचलन किया। अठारहवीं शताब्दी के अंत में लोक कथाओं के ही अर्थ में यह उससे थोड़ा भिन्न फॉकसाज (Volkssage) शब्द का जन्म हुआ। 1846 ई॰ डब्लू. जे. थॉमस ने अंग्रेजी में फॉकलोर (Folklore) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया। इसी प्रकार विभिन्न यूरोपीय देशों में इसी तरह की शब्दावलियां प्रयुक्त होने लगीं। विभिन्न विद्वानों द्वारा अपने रुचि के आधार पर इन लोक संस्कृतियों, लोककलाओं इत्यादि का अध्ययन शुरू हो गया। इन परिवर्तनशील लोककलाओं का संबंध किसी विशेष समुदाय अथवा जाति से होता था, जो उसके सांस्कृतिक अभिज्ञान का द्योतक समझा जाता था।
            मानवशास्त्र में लोक शब्द का दायरा प्रारंभ से ही संकीर्ण रहा था। अमेरिकी मानवशास्त्रीय राबर्ट रेडफ़ील्ड और उनके सहयोगियों द्वारा किए शोध में लोक शब्द को प्रसिद्धि प्राप्त हुई। रेडफ़ील्ड ने भी यह महसूस किया कि लोक अर्थात फोक (Folk) कोई सुनिश्चित रूप से परिभाषित शब्द नहीं है, लेकिन यह फोकलोर (Folklore) या फोकसौंग Folksong) की मौजूदगी से इसका अर्थ इंगित होता है, जिसे संग्रहकर्ता आसानी से पहचान लेते हैं। जिन समाजों में ये फोकलोर/फोकसौंग्स पश्चिम के मानवशास्त्रियों के अध्ययन द्वारा पाये गए या पाये जाते हैं, वैसे समाजों के लिए रेडफ़ील्ड ने फोक सोसाइटी (लोक समाज) शब्द का प्रयोग किया। विभिन्न लोक समाजों में मानवशास्त्रियों द्वारा पाये गए लक्षण के आधार पर एक आदर्श लोक समाज के लक्षणों के विवरण तैयार किए। इनका मानना था कि किसी भी लोक समाज में कम या ज्यादा इसी आदर्श लोक समाज के लक्षण रहेंगे; इसलिए आदर्श लोक समाज के लक्षणों के आधार पर किसी लोक समाज को जानना ज्यादा सुलभ और वैज्ञानिक हो सकता है। रेडफ़ील्ड ने लोक शब्द को लोक-नगरीय सातत्य के रूप में प्रस्तुत किया। इन्होंने जनजातीय, ग्रामीण, कृषक तथा नगरीय सभ्यता के अध्ययन पर विशेष बल दिया।
            उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अमेरिका में फोकलोर के रूप में स्थानीय पुरावशेषों का संकलन एवं अध्ययन प्रारंभ हुआ। फोकलोर एक ऐसा विषय क्षेत्र था, जिसके अंतर्गत देशज अर्थात जनसाधारण की विशेष संस्कृतियों जैसे- गीत, संगीत, साहित्य, नृत्य, विश्वास, मिथक, रीति-रिवाज, मान्यताएं, कहावतें, पहेलियां, नाटक, गाथा, कथा, धार्मिक मूल्य, वाद्य-यंत्र, वेश-भूषा, आभूषण, शिल्प, हस्तकला, छायाचित्र, दीवार चित्र, भित्ति इत्यादि को आधार बनाया गया और उसके माध्यम से उस व्यक्ति, समाज, समुदाय एवं संस्कृति की व्याख्या उनकी पहचान, सांस्कृतिक निरंतरता एवं अस्तित्व को ध्यान में रखकर किया गया था। अमेरिका में इनके अध्ययन को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए अनेकों फोकलोर सोसाइटी का गठन किया गया था। सन 1888 में विलियम वेल्स नेवेल ने अमेरिकन फोकलोर सोसाइटी की स्थापना की, जिसके अंतर्गत अमेरिका में जनसाधारण द्वारा अपनी संजातीयता, स्थान, पेशा, धर्म, लैंगिक उत्पत्ति, सुख-दुख, रहन-सहन एवं जीवन संघर्ष इत्यादि को अपनी पहचान, सांस्कृतिक विशेषता एवं  विभिन्नता को प्रदर्शित करते हैं, इत्यादि का मूल रूप में संग्रहण एवं अध्ययन किया जा सके। मानवशास्त्री फ़्रांज बोआस का भी नाम इसी अमेरिकन फोकलोर सोसाइटी से आता है, जिसके अंतर्गत इन्होंने पौराणिक कथाओं का संकलन एवं विश्लेषण किया था। 19वीं शताब्दी के मध्य अनेकों फोकलोर सोसाइटी की स्थापना की गयी, जैसे- वेस्टर्न फोकलोरे सोसाइटी, वर्जीनिया  फोकलोर सोसाइटी, फॉक्सवेली फोकलोर सोसाइटी, अगस्ट हेरिटेज सेंटर, वाशिंगटन फोकलोर सोसाइटी, न्यूयॉर्क फोकलोर सोसाइटी। इन फोकलोर सोसाइटी का मुख्य उद्देश्य किसी समाज की देशज कलाओं जैसे- लोकगीत, लोक नृत्य, संगीत, वाद्य-यंत्र, वेश-भूषा, साज-सज्जा, शिल्प, हस्तकला, छायाचित्र, लोक जीवन, लोककला, कहावतें, मुहावरे, लोकोक्तियां, भौतिक संस्कृतियां, पेशा, जीवन संघर्ष, पर्व-त्योहार इत्यादि का अध्ययन और संकलन करके उन मूल लोककलाकारों को पहचान दिलाना था। आज भी ये संस्थाएं कार्यरत हैं। इनके द्वारा अनेकों कार्यक्रम एवं पत्रिकाओं का संचालन किया जाता है जिसमें इन लोककलाओं से संबंधित लेख प्रकाशित किए जाते हैं।
            अमेरिका के अलावा अन्य देशों में फोकलोर या लोककला के अध्ययन के लिए बहुत सारी संस्थाएं स्थापित की गयी हैं। जैसे- Association canadienned'ethnologie et de folklore/Folklore Studies Association of Canada, Australian Folklore Network, Perth, WA (Western Australia), The British Columbia Folklore Society, Central Saanich, Baltic Institute of Folklore, Deutsche Gesellschaft für Volkskunde, Germany, Folklore Fellows, Finland, The Folklore Society of UK, The Folklore Society of Japan, The International Society for Contemporary Legend Research of Athens, International Society for Folk Narrative Research, National Folklore Support Centre in India, Open Folklore web portal Indiana University, Slavic and East European Folklore Association। इस प्रकार अमेरिका में ही नहीं बल्कि पूरे देश में फोकलोर का अध्ययन किया जाता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि जितने भी फोकलोर सोसाइटी बनाई गयी थी, उनका काम जनसाधारण अर्थात स्थानीय लोगों के विशेष संस्कृति (Popular Culture) का अध्ययन करना था।
            इसी प्रकार भारत में भी फोकलोर अध्ययन कि शुरूआत हुई। भारत में फोकलोर अध्ययन की शुरूआत ब्रिटिश अधिकारी सर जेम्स टाड (1829-40) ने की थी। टाड को भारत का प्रथम फोकलोरिस्ट का दर्जा दिया जाता है, क्योंकि इन्होंने सर्वप्रथम भारतीय पुरावशेषों का अध्ययन किया था। टाड एक ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारी थे, जो औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए कार्य करने के लिए भारत में आए थे। भारतीय संदर्भ में लोक संस्कृति के अध्ययन का श्रीगणेश जेम्स टाड ने राजस्थान के लोक गाथाओं, कथाओं एवं जनश्रुतियों के संकलन से प्रारंभ किया। तत्पश्चात विभिन्न लोक संस्कृतियों और लोककलाओं का अध्ययन प्रारंभ हुआ। इन्होंने राजस्थान के राजपूतना संस्कृति का गहन अध्ययन किया। टाड ने "Remarks on Certain Sculptures in the Cave Temples of Ellora" (1829), Annals and Antiquities of Rajast'han or the Central and Western Rajpoot States of India (1829), "Observations on a Gold Ring of Hindu Fabrication found at Montrose in Scotland" (1830), "Comparison of the Hindu and Theban Hercules, illustrated by an ancient Hindu Intaglio" (1831), Annals and Antiquities of Rajast'han or the Central and Western Rajpoot States of India (1832), एवं Crooke, William, ed. Annals and Antiquities of Rajast'han or the Central and Western Rajpoot States of India (1920) तीन खंड में प्रकाशित की। टाड एक ऐसे अधिकारी थे, जिन्होंने प्रशासन के साथ-साथ स्थानीय समुदाय का इतिहास और भूगोल के आधार पर नृजातीय अध्ययन किया था। इन्होंने राजस्थान राज्य के राजपूतना समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनितिक एवं फोकलोर का ध्यान किया था। अपनी पुस्तकों में राजपूत महिलाओं द्वारा गए जाने वाले गीतों का गहन अध्ययन किया था। इन गीतों में इनके वीरता, सुख-दुख, जीवन संघर्ष, दिन-रात, रहन-सहन, हर्ष-उल्लास एवं सतीत्व की झलक होती है। टाड ने राजस्थान के शिल्प कलाओं, हस्त कलाओं, दीवार की पेंटिंग इत्यादि को भी अपनी पुस्तक में वर्णन किया है। इसके साथ ही साथ एलोरा गुफा के मूर्तिकला की बारीकियों का अध्ययन किया। भारत के राजपूतना साम्राज्य के पुरावशेषों का अध्ययन करने के कारण टाड को प्रथम भारतीय फोकलोरिस्ट “लोककलाविद की संज्ञा दी जाती है।
            इसके बाद भारत में फोकलोर अथवा लोक अध्ययन की नीव पड़ गयी। भारत में लोक अध्ययन की शुरूआत दो प्रवृत्तियों के कारण हुआ। यहाँ कार्यरत औपनिवेशिक अधिकारियों ने शासित को जानने-समझने के उद्देश्य से इसका अध्ययन प्रारंभ किया। बीसवीं शताब्दी के कुछ राष्ट्रवादी कवियों ने अपनी संस्कृति को महिमामंडित करने के लिए लोक संस्कृति से सहारा लेने हेतु इसका अध्ययन तथा संकलन किया। भारत में फोकलोर से संबंधित अध्ययनों को एल. पी. विद्यार्थी ने अपनी पुस्तक ‘Rise of Anthropology in India, vol.1’ (1978) में संकलित करने का प्रयास किया है। इस पुस्तक में यह कहा गया है कि फोकलोर एक स्वतंत्र और अंतर-अनुशासनिक विषय है, जिसमें विभिन्न गीतों, मिथकों, गाथाओं, कथाओं, नृत्यों, कहानियों, मुहावरों तथा विशेष परंपराओं का अध्ययन किया जाता है। शंकर सेनगुप्ता (1987) ने कहा है कि फोकलोर शब्द का व्यवस्थित प्रयोग सबसे पहले डब्लू. जे. थॉमस ने 1846 में किया था। इंद्र देव (1978) ने अपनी ‘Trend Report’ में फोकलोर अध्ययन पर ज़ोर दिया है और कहा कि आधुनिक सामाजिक ताकतों ने फोकलोर को प्रभावित किया है, जिसके कारण समकालीन समाजशात्रियों ने लोक साहित्य से संबंधित तथ्यों को संकलित किया। परंतु इनकी रिपोर्ट मात्र एक सैद्धांतिक पूर्वसर्ग बनकर रह गयी। इसी समय की रॉयल एसियाटिक सोसाइटी बंगाल ने फोकलोर, फोकटेल इत्यादि का संकलन जारी रखा था। यह एक पहली भारतीय संस्था थी, जो फोकलोर से संबंधित अध्ययन करती थी। इसके बाद 1872 में बॉम्बे में जेम्स बुर्गेस ने फोकलोर का अध्ययन एवं संकलन किया, जो भारतीय पुरावशेषों का प्रतिनिधित्व करते थे। इन्होंने शोधकर्त्ताओं, प्रकाशकों को मिथकों, लोककहानियों, लोक गीतों एवं विशेष परपराओं के अध्ययन पर ध्यान केंद्रित करवाया।
            सन् 1886 में ‘Anthropological Society of Bombay’ ने अधिक से अधिक भारतीय पुरावशेषी पत्रिकाओं का प्रकाशन किया, जिसमें फोकलोर से संबंधित लेख थे। इसमें एस. सी. मित्रा का नाम प्रमुख था, जिन्होंने लोक गीतों एवं लोक कहानियों का भारी मात्रा में संग्रह किया। इसी प्रकार ‘Journal of Mythic Sociey of Bangalore, Journal of Bihar and Orissa Research Society of Patana, Man in India in Ranchi इत्यादि ने भारतीय पुरावशेषों का संकलन किया। 1868 में मेरी फ्रेरे ने भारतीय लोक कहानियों का एक संग्रह किया जिसे ‘The Old Deccan Day’ नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। इसी प्रकार 1884 में फ्लोरे स्टील और आर. सी. टेंपल ने पंजाब की कहानियों पर आधारित एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसका शीर्षक ‘Wide Awake Stories’ था। इसके बाद भारत में फोकलोर अध्ययन की शुरूआत अकादमिक स्तर हुई और भारतीय विश्वविद्यालयों में भोजपुरी, मैथिली, मराठी, कश्मीरी, असमी एवं जनजातीय फोकलोर से संबंधित अध्ययन शुरू हुए। इसके साथ ही साथ 1950 में कलकत्ता में फोकलोर से संबंधित पुस्तकों का प्रकाशन भी हुआ। शंकर सेनगुप्ता के नेतृत्व में ‘Folklore Research in India; reception committee of all Indian folklore Conference’ में पहली बार “Folklorology” शब्द का प्रयोग किया गया, जिसका कार्य पुरावशेषों का क्रमबद्द एवं सुव्यवस्थित अध्ययन करना था। इसके बाद मानवविज्ञान विषय में भी इस क्षेत्र में अध्ययन शुरू हुआ। एडविन कॉपर्स किर्कलैंड (2003) ने दक्षिण एशिया के गीतों, कहानियों, पहेलियों, कहावतों एवं अन्य मौखिक साहित्यों का एक संग्रह ग्रंथ तैयार किया, जिसका शीर्षक ‘A Bibliography of South Asian Folklore, था। सन 1973 में दुलाल चौधरी ने ‘Methodology in Foklore Research and Archiving’ में फोकलोर शोध से संबंधित महत्वपूर्ण शोध प्रविधियों को बताया है जिसके अंतर्गत Histo-geographical Method, Cultural-historical Method, Sociological Method, Anthropological Method, Literary or Aesthetic Method, psycho-analytical method, the comparative method, interdisciplinary method एवं mythological and ritualistic method आते हैं, जिसका प्रयोग किसी भी फोकलोर अध्ययन हेतु किया जाना चाहिए। इसके बाद आर. एम. सरकार (1973) ने अपनी पुस्तक Foklore in relation to Anthropology’ में Anthropological Method को और अधिक विस्तार से बताया है, जिसका प्रयोग फोकलोर एवं लोक संस्कृति अध्ययन में किया जा सकता है।
            शंकर सेनगुप्ता द्वारा संपादित पुस्तक ‘Women in Indian Foklore’ (1969) में 26 फोकलोरिस्ट द्वारा लिखित लेखों को संकलित किया, जिसमें भारतीय महिलाओं के द्वारा गाया जाने वाला गीत, कहानियां, मुहावरे, पहेलियां, मिथक, गाथाएं एवं परम्पराएं थी, जो महिलाओं की अनूठी कुशलता एवं पहचान का द्योतक थी। इसके बाद से भारत में फोकलोर अध्ययन की एक परंपरा चल पड़ी, जिसका उल्लेख एल. पी. विद्यार्थी ने पुस्तक में किया है, जिसका एक संक्षिप्त वर्णन किया जा रहा है। विद्यार्थी ने भारत के विभिन्न राज्यों में मिलने वाली लोककलाओं अर्थात फोकलोर का उनके लेखकों द्वारा किए गए अध्ययन को एक क्रम में संयोजित करने का कार्य किया गया है।
·       कश्मीर:
            जी. एच. लेटनेर (1872) एक ऐसे फोकलोरिस्ट थे, जिन्होंने पहली बार कश्मीर के दारदु महापुरुषों से संबंधित कहानियों, गीतों, पहेलियों, मुहावरों इत्यादि का संग्रह किया था। इन्होंने गिलगिट से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर पाँच खंडीय वर्गीकरण प्रस्तुत किया, जिसमें पक्षियों की कहानियां, जादुई कहानियां, चुड़ैलों की कहानियां और भूतों से संबंधित कहानियां एवं गिलगिट के महापुरुषों से संबंधित कहानियां सम्मिलित थी। इस तरह J. Hinton Knowles (1893) ने ‘Indian Antiquary, Vol. 15 में “Kashmiri Tales” नामक शोध पत्र लिखा। इसमें कुछ कश्मीरी दंत कथाओं का वर्णन था। इसमें गुलाबी शाल नामक चार राजकुमारों एवं चार राजकुमारियों की कहानियां हैं। इसी तरह गुलाम मोहम्मद (2005) ने ‘Shins Banjuns’ त्योहार में स्थानीय लोगों द्वारा गीत के रूप में गायी जाने वाली ‘Ayi-Boi’ और ‘Duma-nikhe’ का वर्णन किया था। इसके अलावा शादी और संस्कार में गाये जाने वाले गीतों का भी अध्ययन किया था। इनका यह कार्य अनुभवजनित ज्ञान पर आधारित था। इसी तरह 1949 में कश्मीर की दंत कथाओं पर सोमनाथ धार ने ‘Kashmiri Folktales’ किताब का प्रकाशन किया तथा गुलाम मोहम्मद एवं ई. ई. होवेल (2002) ने अपनी पुस्तक में कश्मीरी लोक गीतों का संग्रह किया था।
·       पंजाब:
            पंजाब के पुरावशेषों से संबंधित लेखों को स्टील ने 1880 से 1883 तक लगातार प्रकाशित करवाया, जो पंजाब के सांस्कृतिक उद्घोष के रूप में जाने जाते हैं। इन्होंने पंजाब की महिलाओं से संबंधित राजा और मगरमच्छ की कहानियों का संग्रह और विश्लेषण किया। पंजाब के फिरोजपुर जिला के पौराणिक कहानियों का विश्लेषण किया, जिसमें ‘Baingam Badshabzadi’ और ‘Princess Aubegine’ की कहानियां सम्मिलित हैं। 20वीं शताब्दी की शुरूआत में विलियम क्रूक (1900), आर. सी. टैम्पल (1900) एवं एच. ए. रोज़ (1909) ने उत्तरी-पूर्वी क्षेत्रों में स्थानीय लोगों के बीच सुने जाने वाले दंत कथाओं का संकलन किया। विलियम क्रूक ने गाजी गांव के लोगों द्वारा साक्षात्कार के माध्यम से स्थानीय दंत कथाओं का संकलन किया। टैम्पल ने पंजाब के महापुरुषों से संबंधित लोक साहित्यों का संकलन कर उनका स्थानीय समुदाय के सामाजिक उद्देश्य का विश्लेषण किया। रोज़ ने खान ख्वाज युद्द के वीरों से संबंधित कथाओं का संकलन किया। जे. एफ. ए. मकनाइर और थॉमस लैम्बर्ट ने अपनी पुस्तक ‘The Oral Traditions from the Indus’ में उन्नीस कहानियों का संग्रह किया। इन कहानियों का संग्रह स्थानीय समुदाय के अभिज्ञान से किया। इसी क्रम में मानवशास्त्रीय वेरियर एलवीन (1944) ने अपनी पुस्तक में ‘The Legend of Rasalu Kour’ एवं ‘Hariyana Lok Manch ki Kahaniya’ में स्थानीय लोक महापुरुषों से संबंधित दंत कथाओं एवं कहानियों का संग्रह किया। इन्होंने स्थानीय महापुरुष राजा राम शास्त्रीय की कहानियों का संग्रह किया। इसके अलावा एलवीन ने हरियाणा के मेले और त्योहार’, हरियाणा के लोकगीत एवं हरियाणा के गाथा गीत नामक किताबों का प्रकाशन किया जिसमें गांवों में प्रचलित गीतों, गाथाओं, कथाओं, कहानियों एवं पहेलियों का स्थानीय समुदाय से क्षेत्रकार्य के दौरान एकत्रित किया।
            इसी प्रकार थॉमसन (1885) ने एक शोध पत्र लिखा और कहा कि प्रत्येक जनजाति, जाति, समुदाय, व्यवसाय एवं संघर्ष के लिए अलग-अलग गीत, कहानियां, पहेलियां, मुहावरे एवं कथाएं होती है, जिसका किसी समाज से संबंध होता है। पंजाब में जातियों के गीत, नहरों के गीत, काबुल युद्द के गीत इत्यादि सुनने को मिलते हैं। इस तरह रोज़ (1909) ने पंजाबी गीतों का पूरा संग्रह एकत्रित किया, जिसमें फूलों के गीत, विवाह गीत, पेशा गीत, पक्षियों के गीत इत्यादि सम्मिलित हैं। रोज ने ‘Indian Antiquary’ (1909) में गद्दी महिलाओं एवं पहाड़ी प्रेम से संबंधित विभिन्न गीतों का संग्रह प्रकाशित करवाया। कोल्ड स्ट्रीम (1919) ने पठानकोट एवं डलहौजी रोड के पालकी धारकों के व्यवसाय गीतों का संकलन किया। इन्होंने भारत के व्यवसाय गीतों का अध्ययन और विश्लेषण किया। इसी तरह देवेंद्र सत्यार्थी (1945-51), मोहन सिंह (1951-52), किदार नाथ (1958), एम. एस. रंधावा (1955) एवं डी. एस. प्रभाकर और यादव (1956) ने पंजाबी गीतों का संग्रह के साथ-साथ विश्लेषण कर विभिन्न पुस्तकों का प्रकाशन किया। सत्यार्थी की पुस्तक बाजत आवे ढ़ोल सबसे प्रसिद्ध हुई, जिसमें कहा है कि लोक गीत समूह चेतना एवं सामान्य आवश्यकता का परिणाम होता है। ये लोकगीत अपने समाज के इतिहास, कला, भाषा, सामाजिक व्यवस्था, सुख-दुख, हर्ष-विलास, जीवन संघर्ष इत्यादि की झलक प्रदर्शित करता है।”
·       उत्तर-प्रदेश एवं हिमांचल प्रदेश:
            डब्लू. सी. बेनेट्ट (1872) पहले फोकलोरिस्ट थे, जिन्होंने उत्तर-प्रदेश के लोक संस्कृति को प्रकाश में लाया था। इन्होंने 1872 में ‘Outh Folklore’ नामक शीर्षक में बलरामपुर के महापुरुषों से संबंधित तथ्यों का संग्रह किया। इसमें बलरामपुर के पहलवान भाबन मिश्रा के जीवन की कहानी है। इसके अलावा एफ. ए. स्टील (1884) ने मिर्ज़ापुर जिले के शुभ चिन्हों का संकलन किया, जिसका स्थानीय समुदाय में विशेष महत्व होता है। विलियम क्रूक (1893) ने एक स्थानीय सूचनादाता के मदद से मिर्ज़ापुर जिले के विभिन्न दंत कथाओं का संकलन किया। इसके अलावा क्रूक ने बिजनौर जिले के पृथ्वीराज चौहान के वीर गाथाओं का संकलन स्थानीय सूचनादाता भोला भगतके द्वारा किया। एस. सी. मित्रा (1902) एक ऐसे प्रथम भारतीय फोकलोरिस्ट थे, जिन्होंने उत्तर-प्रदेश के लोक संस्कृति का अध्ययन किया। इन्होंने उत्तर भारत के चोर एवं लुटेरों के धार्मिक लोक साहित्य का अध्ययन किया। उत्तर भारत के चोर और लुटेरे देवी और काली माता की पुजा करते हैं, क्योंकि इनका विश्वास है कि काली इनकी रक्षा करती है। इसके अलावा इन्होंने पहली बार एक राजा और दो रानियों से संबंधित कहानी का संकलन किया। इसी क्रम में एलिस एलीजाबेथ ड्राकोट्ट (1906) ने हिमांचल प्रदेश के पहाड़ी महिलाओं से लगभग 57 दंत कथाओं का संकलन और अध्ययन किया, जिसमें प्राचीन पहाड़ी संस्कृति की झलक दिखाई देती है। इसी तरह तारा दत्त गरिओला (1926) ने गढ़वाल के लोक साहित्य क अध्ययन किया। गरिओला ने गढ़वाल के लोक साहित्य को चार भागों में वर्गीकृत किया है, जिसमें पौराणिक देवता एवं पिशाच से संबंधित कहानियां, प्राचीन राजा एवं गढ़वाल के नायकों से संबंधित कहानियां, पारियों और भूतों से संबंधित कहानियां एवं गीत प्रमुख हैं।
            हिमालय के लोक साहित्य से सबंधित सबसे महत्वपूर्ण कार्य इ. एस. ओकले और टी. डी. गरिओला (1935) ने किया। इन्होंने हुर्किया पक्षी की चर्चा की है, जो हिमालयी फोकलोर का सबसे प्रमुख केंद्र है। इनके अनुसार हिमालयी फोकलोरे पहाडी लोक संस्कृति को स्थानीय समुदाय एवं समाज में सांस्कृतिक पहचान एवं उद्घोष को संचारित करने का कार्य करते हैं।” इन्होंने हिमालयी लोकसंस्कृति को सात भागों में वर्गीकृत किया है- (1) प्राचीन महापुरुषों की कहानियां (2) परियों की कहानियां (3) पक्षियों एवं जंगली जानवरों की कहानियां (4) भूतों एवं पिशाचों की कहानियां (5) जादुई कहानियां (6) परिहासयुक्त कहावतें (7) विभिन्न प्रकार के स्थानीय गीत। इस तरह सीब सहाय चतुर्वेदी (1934) ने बुंदेलखंड के लोक साहित्य का अध्ययन किया, जिसमें 17 दंत कथाओं का संकलन था। इसमें इन दंत कथाओं के सामाजिक महत्व की चर्च किया है। बुंदेली लोक संस्कृति के गीत, मिथक, कहावतें, मुहावरे, परंपराएं, जादुई कहानियां इत्यादि का संकलन कर अपनी पुस्तक जैसी करनी वैसी भरनी का प्रकाशन किया। चतुर्वेदी ने हिंदी भाषा में बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी, अवधी एवं मागधी लोक कथाओं का संग्रह किया, जिसका शीर्षक हमारी लोक कथाएं है। एस. पी. आर्या (1973) ने समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से उत्तर-प्रदेश के फोकलोर का अध्ययन किया है।
            उत्तर-प्रदेश के लोक गीतों के संबंध में अध्ययन गरिओला (1926), हुज फ्रेजर (1983), ए. जी. शेरिफ़्फ़ (1936) एवं क्रूक (1926) ने किया है। इन्होंने कजरी गीत, ठुमरी गीत, गजरी गीत, जतसारी गीत, बिरहा इत्यादि गीतों का संकलन किया है। क्रूक (1925) ने उत्तर-प्रदेश के विभिन्न विवाह गीतों का संकलन कर अपनी पुस्तक ‘Songs and Sayings about the great in Northern India’ का प्रकाशन किया। इसके साथ ही साथ क्रूक ने उत्तर भारत के विवाह गीतों का संकलन और विश्लेषण किया, जिसमें 27 हिंदू विवाह गीत और तीन मुस्लिम विवाह गीत थे। इसी तरह शेरिफ़्फ़ ने 1936 में लोक गीतों का संकलन किया। इन्होंने जौनपुर के कोइरीपुर गांव के लोगों द्वारा गाये जाने वाले विभिन्न लोक गीतों का संकलन किया। ग्रिएरसन ने अपने सर्वेक्षण में यह बताया कि भोजपुरी बोली उत्तर-प्रदेश के गाजीपुर, आजमगढ़, जौनपुर, वाराणसी, बलिया, मिर्ज़ापुर और बिहार के सारण, आरा, चंपारण, साहबाद, मोतीहारी इत्यादि जिलों में बोली जाती है। इन्हीं जिलों में भोजपुरी भाषा को स्थानीय लोक गीतों में देखा जा सकता है। इन्होंने कहा कि “भोजपुरी लोकगीत एक ऐसा माध्यम है, जो पूर्वांचल में भोजपुरी संस्कृति को जीवित रखे हुए है। ये लोकगीत स्थानीय लोगों के सांस्कृतिक पहचान और जीवन संघर्षों का प्रमाण है।” इसी तरह देवेंद्र सत्यर्थी (1942) ने अहीर जाति के विभिन्न बिरहा लोक गीतों का संकलन किया। बिरहा गीत एक ऐसी परंपरा के रूप में पूर्वांचल में चलायमान है, जो अहीर जाति के जीवन शैली, समुदाय और समाज के बीच समाजस्य स्थापित करता है। सत्यर्थी ने अपने एक लेख में बिरहा लोकगीत के बारे में लिखा है कि यह प्रेमी और बिछड़ी हुई प्रेमिका के दुख और दर्द में उत्पन्न हुई अनुभूति है, जो इनके मनोभावों को व्यक्त करती है।” इसके अलावा सत्यर्थी ने निरौनी के गीत (विशेषकर चमार जाति की महिलाओं द्वारा गाया जाता है), सोहर, जाता गीत (आटा पीसने कि चक्की), बरसाती गीत, सावन के गीत इत्यादि का अध्ययन भी किया है। सत्यार्थी की तरह दुर्गा प्रसाद सिंह (1953-54) ने अपनी पुस्तक भोजपुरी लोकगीत में करुण रस में 34 राग के गीत, 50 राग जतसार के गीत, 58 झूमर के गीत, 5 राग कबरवाला गीत, 42 भजन गीत, 15 बारामासा गीत, 3 अलचारी गीत, 2 खेल सबना गीत, 13 देवी गीत, 33 विवाह गीत, 5 रोड पर चलते समय गाये जाने वाले गीत और 23 विद्यापति-कबीर एवं धरम दास के गीत का समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया था। उदय नारायण तिवारी (1949) ने भोजपुरी महिलाओं द्वारा गया जाने वाला पीरिया गीत का अध्ययन किया था। पीरिया भोजपुरी क्षेत्र में गया जाने वाला महत्वपूर्ण गीत है, जो विभिन्न त्योहारों में महिलाओं द्वारा गया जाता है।
            सोमदेव (1949) ने गोरखपुर के विभिन्न गीतों का संकलन किया, परंतु इनका विश्लेषण नहीं कर सके। इसी क्रम में के. डी. उपाध्याय (1950) ने भोजपुरी लोक गीतों एवं गाथा गीतों का अध्ययन किया। इनके अनुसार “गाथा गीत अकेले नहीं गया जा सकता है। इसका कोई वैधानिक लिपि नहीं है तथा यह मौखिक होता है, जो परंपरा के रूप में आगे बढ़ता है।” उपाध्याय ने लोक गीतों को पाँच भागों में वर्गीकृत किया है, जिसमें संस्कार से संबंधित लोकगीत, व्रत से संबंधित गीत, मौसम से संबंधित गीत, विशेष समुदाय द्वारा गया जाने वाला गीत, क्रिया गीत हैं। इसके साथ ही साथ उपाध्याय ने 271 भोजपुरी लोक गीतों का संकलन किया था।  


Friday, 18 August 2017

डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल (DNA)
परिचय-
डी. एन. ए. जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तंतुनुमा अणु को डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल या डी एन ए कहते हैं। इसमें अनुवांशिक कूट निबद्ध रहता है। DNAअणु की संरचना घुमावदार सीढ़ी की तरह होती है।डीएनए की एक अणु चार अलग-अलग रास वस्तुवों से बना है, जिन्हे न्यूक्लियोटाइड कहते है| हर न्यूक्लियोटाइड एक नाइट्रोजन युक्त वास्तु है| इन चार न्यूक्लियोटाइडो को अडेनिन, ग्वानिन, थाइमिन और साइटोसिन कहा जाता है| इन न्यूक्लियोटाइडो से युक्त डिऑक्सीराइबोस नाम का एक शक्कर भी पाया जाता है| इन न्यूक्लियोटाइडो को एक फॉस्फेट की अणु जोड़ती है| न्यूक्लियोटाइडोके सम्बन्ध के अनुसार एक कोशिका के लिए अवश्य प्रोटीनों की निर्माण होता है| अतः DNAहर एक जीवित कोशिका के लिए अनिवार्य है|
Nucleoside- nitrogenous base + deoxi-ribos sugar
Nucleotide- nitrogenous base + deoxi-ribos sugar- phosphate group
          डीएनए आमतौर पर क्रोमोसोम के रूप में होता है| एक कोशिका में गुणसूत्रों के सेट अपने जीनोम का निर्माण करता है; मानव जीनोम 46 गुणसूत्रों की व्यवस्था में डीएनए के लगभग 3 अरब आधार जोड़े है| जीन में आनुवंशिक जानकारी के प्रसारण की पूरक आधार बाँधना के माध्यम से हासिल की है| उदाहरण के लिए, एक कोशिका एक जीन में जानकारी का उपयोग करता है जब प्रतिलेखन में, डीएनए अनुक्रम डीएनए और सही आरएनए न्यूक्लियोटाइडों के बीच आकर्षण के माध्यम से एक पूरक शाही सेना अनुक्रम में नकल है| आमतौर पर, यह आरएनए की नकल तो शाही सेना न्यूक्लियोटाइडों के बीच एक ही बातचीत पर निर्भर करता है जो अनुवाद नामक प्रक्रिया में एक मिलान प्रोटीन अनुक्रम बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है| वैकल्पिक भानुमति में एक कोशिका बस एक प्रक्रिया बुलाया डीएनए प्रतिकृति में अपने आनुवंशिक जानकारी कॉपी कर सकते हैं|डी एन ए की रूपचित्र की खोज अंग्रेजी वैज्ञानिक जेम्स वॉटसन और फ्रान्सिस क्रिक के द्वारा सन १९५३ में किया गया था। इस खोज के लिए उने सन १९६२ में नोबेल पुरस्कार सम्मानित किया गया।
डी. एन. ए.संरचना-
पॉलीन्यूक्लियोटाइडश्रंखला की संरचना-
डीएनए या RNA की रासायनिक संरचना संक्षेप में निम्न है। न्यूक्लियोटाइड के तीन घटक होते हैं नाइट्रोजनी क्षार, पेंटोस शर्करा;RNA के मामले में रिबोस तथा डीएनए में डीआँक्सीरिबोज और एक फोस्फेट ग्रुप। नाइट्रोजनीक्षार दो प्रकार के होते है
प्यूरीन्स-एडेनीन व ग्वानिन व
पायरिमिडीन-साइटोसीन, यूरेसिल व थाइमीन।
साइटोसीन डीएनए व RNA दोनों में मिलता है जबकि थाइमीन डीएनए में मिलता है। थाइमीन के स्थान पर यूरेसील RNA में मिलता है। नाइट्रोजनी क्षार नाइट्रोजन ग्लाइकोसिडिक बन्ध द्वारा पेंटोस शर्करा से जुड़कर न्यूक्लियोसाइडबनाता है। जैसे एडीनोसीन या डीआँक्सी एडीनोसीन, ग्वानोसीन या डीआँक्सी ग्वानोलीन, साइटीडीन या डीआँक्सीसाइटीडीन व यूरीडीन या डीआँक्सी थाइमीडीन। जब फोस्फेट समूह फास्पोएस्टर बन्ध द्वारा न्यूक्लीयोसाइड के 5’हाइड्रोक्सील समूह से जुड़ जाता हैतब सम्बन्धित न्यूक्लियोटाइड्स;डीआँक्सी न्यूक्लियोटाइड्स उप-स्थित शर्करा के प्रकार पर निर्भर है। का निर्माण होता है। दो -न्यूक्लियोटाइड्स 3-5 फास्पोडाइस्टर बन्ध द्वारा जुड़कर डाईन्यूक्लियोटाइड का निर्माण करता है। इस तरह से कई न्यूक्लियोटाइड्स जुड़कर एक पॉलीन्यूक्लियोटाइड्स श्रंखला का निर्माण करते हैं। इस तरह से निर्मित बहुलक के राइबोज शर्करा के 5 किनारे पर स्वतंत्र फोस्फेट समूह मिलता है जिसे पॉलीन्यू-क्लयोटाइड श्रंखला का 5 किनारा कहते हैं। ठीक इसी तरह से बहुलक के दूसरे किनारे पर राइबोज मुक्त 3हाइड्रोक्सील समूह से जुड़ा होता है।पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रंखलाका 3 किनाराकहते हैं। पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रंखला के आधार का निर्माण शर्करा व पफॉस्पेफट्स से होता है। नाइट्रोजनी क्षार शर्करा अंश से जुड़ा होता है जो आधारसे प्रक्षेपित होता है।
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          प्रेफडरीच मेस्चर ने 1869 में केद्रक में मिलने वाले अम्लीय पदार्थ डीएनए की खोज की थी। उसने इसका नाम न्यूक्लिनदिया। ऐसे लंबे संपूर्ण बहुलक को तकनीकी कमियों के कारण विलगित करना कठिन था, इस कारण से बहुत लंबे समय तक डीएनए की संरचना के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं थी। मौरिस विल्किंसन व रोजलिंड पैंफकलिनद्वारा दिए गए एक्स-रे निवर्तन आंकड़े के आधार पर 1953 में जेम्स वाट्सन व प्रफान्सिस त्रीक ने डीएनए कीसंरचना का द्विकुण्डली नमूना प्रस्तुत किया। उनकेप्रस्तावों में पॉलीन्यूक्लियोटाइडश्रंखलाओं के दो लडि़यों के बीच क्षार युग्मन की उप-स्थिति एक बहुत प्रमाणित श्रंखलाचेन थी। उपरोक्त प्रस्ताव द्विकुण्डली डीएनए के इर्विन चारगाफ के परीक्षण के आधार पर
भी था जिसमें इसने बताया कि एडनिन व थाइमिन तथा ग्वानिन व साइटोसीन के बीच अनुपातस्थित व एक दूसरे के बराबर रहता है। क्षार युग्मन पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रंखलाओं की एक खास विशेषता है। ये श्रंखलाए एक दूसरे के पूरक है इसलिए एक रज्जुक में -स्थित क्षार युग्मों के बारे जानकारीहोने पर दूसरी रज्जुक के क्षार युग्मों की कल्पना कर सकते हैं।
द्विकुण्डली डीएनए की संरचना की खास विशेषताए निम्न हैं
·       यह दो पॉलीन्यूक्लियोटाइडश्रंखलाओं का बना होता है जिसका आधारशर्करा-फोस्फेट का बना होता हैव क्षार भीतर की ओर प्रक्षेपी होता है।
·       दोनों श्रंखलाए प्रति समानांतर ध्रुवणता रखती है। इसका मतलब एक श्रंखला कोध्रुवणता 5से 3की ओरहोतोदूसरेकीध्रुवणता 3से 5कीतरहहोगी।
·       दोनों रज्जुकों के क्षारआपस में हाइड्रोजन बन्ध द्वारा युग्मित होकर क्षार युग्मक बनाते हैं। एडेनिन वथाइमिन जो विपरीत रज्जुकों में होते हैं। आपस में दो हाइड्रोजन बन्ध बनातेहैं। ठीक इसी तरह से ग्वानीन साइटोसलीन से तीन-हाइड्रोजन बन्ध द्वारा बंधा रहताहै जिसके पफलस्वरूप सदैव यूरीन के विपरीत दिशा में पीरीमिडन होता है। इससे कुण्डलीके दोनों रज्जुकों के बीच लगभग समान दूरी बनी रहती है।
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·       दोनों श्रंखलाए  दक्षिणवर्ती कुंडलित होती हैं।कुण्डली का पिच 3.4 नैनोमीटर ;एक नैनोमीटर एक मीटर का 10 करोड़वा भाग होता हैवह 10-9 मीटर के बराबर है। व प्रत्येक घुमाव में लगभग 10 क्षार युग्मक मिलते हैं। परिणामस्वरूपएक कुण्डली में एक क्षार युग्मक के बीच लगभग 0.34 नैनोमीटर की दूरी होती है।
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डी. एन. ए. प्रतिकृति
कोशिका विभाजन एक जीव विकसित करने के लिए आवश्यक हैलेकिन जब एक सेल कोशिका विभाजित होती है, तो विभाजन के फलस्वरूप उत्पन्न दोनों कोशिकाओं के जीनोम में मूल कोशिका के डीएनए की हूबहू प्रतिकृति बननी चाहिए। इसलिए डीएनए की द्विपट्टिका संरचना डीएनए प्रतिकृति के लिए एक सरल तंत्र प्रदान करती है। यहां, डीएनऐ के दो रेशे या पट्टिकाऐं अलग हो रही हैं और फिर एक पट्टिका के संपूरक डीएनए अनुक्रम डीएनए पोलीमरेज़ नामक एंजाइम द्वारा निर्मित किए जाते हैं। यह एंजाइम पूरक संयुक्ताधार युग्मन के माध्यम से सही आधार खोजने, और मूल संबंध द्वारा पूरक किनारा बनाती है। क्योंकि डीएनए पोलीमरॅसिस केवल 5' 3' की दिशा में विस्तार कर सकते हैं, द्विकुण्डल असमानांतर पट्टी की प्रतिकृति बनाने हेतु भिन्न प्रक्रिया होती है। इस प्रकार पुरानी गुणसूत्र पट्टी का आधार यह बताता है कि नई पट्टी पर क्या आधार रहेगा। और इस तरह नई कोशिका के डीएनए गुणसूत्र अपनी जनक कोशिका के गुणसूत्र की हूबहू प्रतिकृति होते हैं।


Thursday, 30 March 2017


धोबिया लोककला की विषय-वस्तु:
          धोबिया लोककला एक ऐसी विधा के रूप में प्रचलित है जिसे लोकसाहित्य के रूप में भी देखा जा सकता है क्योंकि धोबिया लोककला में गीत, कहानियाँ, नृत्य, कथाएँ, गाथाएँ, मिथक, मुहावरें, लोकोक्तियाँ, संगीत, वाद्य-यंत्र एवं वेश भूषा इत्यादि होते हैं। जो मौखिक परंपरा के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस स्थानीय समाज में देखने को मिलता है। धोबिया लोककला के विभिन्न स्वरूपों में उसकी विशेष विषय-वस्तु कि झलक देखने को मिलती है। धोबी जाति कि पारंपरिक लोककला में धोबी जाति के समाज, संस्कृति एवं सांस्कृतिक परिवर्तन  एवं एक धोबी के स्वयं के जीवन संघर्ष को केंद्र में रख कर प्रस्तुत किया जाता है। इसके साथ ही साथ आधुनिक समय में हुए सांस्कृतिक परिवर्तनों को भी धोबिया लोक कला के विषय-वस्तु के रूप में देखा जा सकता है। धोबिया लोककला के विभिन स्वरूपों में परिलक्षित होने वाले विषय-वस्तुओं का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है।
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मानव:    
          समाज की प्रथम इकाई के रूप में मानव का स्थान आता है जिसने अपने विभिन्न व्यवहारों से समाज का निर्माण किया था और उसके द्वारा किया जाने वाला विभिन्न व्यवहार ही संस्कृति के नाम से जानी जाती है। मानव हमेशा क्रियाशील रहता है और अपनी क्रिया और कार्य से समाज में जीवन का निर्वाह करता है। समाज में मानव का भिन्न-भिन्न प्रस्थिति होती है जिसका निर्धारण उसका समाज करता है और इस प्रस्थिति के अनुरूप ही मानव विभिन्न प्रकार की भूमिका का निर्वाह करता है। समाज में मानव दो प्रकार से भूमिका का निर्वाह करते हुए समाजीकरण को प्रदर्शित करता है, जिसे आरोपित एवं अर्जित भूमिका कहते हैं। अतः मानव एक ऐसा प्राणी है जो समाज में रहते हुए मानवों के समूह से आपसी संबंध का निर्माण करता है। इसीलिए फिक्टर (1957:19) ने मानव के संबंध में कहा है कि “व्यक्ति एक अकेला किन्तु मिश्रित एवं जटिल प्राणी है।” विभिन्न लोक कलाओं में मानव के प्रस्थिति एवं भूमिका को केंद्र में रखा जाता है, जिसे लोक कलाकार स्थानीय समाज और उसकी संस्कृति का अभिन्न अंग मानते हुए गीतों, कहानियों, मुहावरों, नृत्यों, कथाओं एवं गाथाओं में प्रदेशित करते हैं ताकि उस समाज में मानव के सामाजिक प्रस्थिति एवं भूमिका की जानकारी प्राप्त हो सके और समाजीकरण की प्रक्रिया नियमित रूप में संचालित हो सके। यही क्रम पूर्वाञ्चल क्षेत्र के मिर्ज़ापुर एवं गाजीपुर जिले में प्रचलित धोबिया लोककला के विभिन्न स्वरूपों में देखने को मिलती है। जैसे गीतों की रचना में करने वाले धोबी जाति के कलाकार मानव के जीवन संघर्ष को विशेष ध्यान रखते हैं। विभिन्न धोबिया लोग गीतों में धोबी और धोबिन के जीवन संघर्ष को देखा जा सकता है। इसी प्रकार नृत्य, कहानियों, मुहावरों, कथाओं, गाथाओं इत्यादि में धोबी का वर्णन स्वतंत्र रूप में देखने को मिलता है। अतः धोबिया लोक कला की प्रथम विषय वस्तु के रूप में मानव (धोबी-धोबिन) का प्रथम स्थान है। जैसे-
अरे ssssssss… धोबिया रे धोबिया…….
अरे तोहरे करजवा के शोर भइल धोबिया..... ।।
उची-उची जतिया के कुलीन धरनवा ......... ॥
दूर कइले धोबिया............... ॥
समाज:
          समाज मानवीय अंत:क्रियाओं के प्रक्रम की एक प्रणाली है। मानवीय क्रियाएँ चेतन और अचेतन दोनों स्थितियों में साभिप्राय होती हैं। व्यक्ति का व्यवहार कुछ निश्चित लक्ष्यों की पूर्ति के प्रयास की अभिव्यक्ति है। उसकी कुछ नैसर्गिक तथा अर्जित आवश्यकताएँ होती हैं - काम, क्षुधा, सुरक्षा आदि। इनकी पूर्ति के अभाव में व्यक्ति में कुंठा और मानसिक तनाव व्याप्त हो जाता है। वह इनकी पूर्ति स्वयं करने में सक्षम नहीं होता अत: इन आवश्यकताओं की सम्यक् संतुष्टि के लिए अपने दीर्घ विकासक्रम में मनुष्य ने एक समष्टिगत व्यवस्था को विकसित किया है। इस व्यवस्था को ही हम समाज के नाम से सम्बोधित करते हैं। यह व्यक्तियों का ऐसा संकलन है जिसमें वे निश्चित संबंध और विशिष्ट व्यवहार द्वारा एक दूसरे से बँधे होते हैं। व्यक्तियों की वह संगठित व्यवस्था विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न मानदंडों को विकसित करती है, जिनके कुछ व्यवहार अनुमत और कुछ निषिद्ध होते हैं।
          समाज में विभिन्न कर्त्ताओं का समावेश होता है, जिनमें अंत:क्रिया होती है। इस अंत:क्रिया का भौतिक और पर्यावरणात्मक आधार होता है। प्रत्येक कर्त्ता अधिकतम संतुष्टि की ओर उन्मुख होता है। सार्वभौमिक आवश्यकताओं की पूर्ति समाज के अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। तादात्म्यजनित आवश्यकताएँ संरचनात्मक तत्वों के सहअस्तित्व के क्षेत्र का नियमन करती है। क्रिया के उन्मेष की प्रणाली तथा स्थितिजन्य तत्व, जिनकी ओर क्रिया उन्मुख है, समाज की संरचना का निर्धारण करते हैं। संयोजक तत्व अंत:क्रिया की प्रक्रिया को संतुलित करते है तथा वियोजक तत्व सामाजिक संतुलन में व्यवधान उपस्थित करते हैं। वियोजक तत्वों के नियंत्रण हेतु संस्थाकरण द्वारा कर्ताओं के संबंधों तथा क्रियाओं का समायोजन होता है जिससे पारस्परिक सहयोग की वृद्धि होती है और अंतर्विरोधों का शमन होता है। सामाजिक प्रणाली में व्यक्ति को कार्य और पद, दंड और पुरस्कर, योग्यता तथा गुणों से संबंधित सामान्य नियमों और स्वीकृत मानदंडों के आधार पर प्रदान किए जाते हैं। इन अवधाराणाओं की विसंगति की स्थिति में व्यक्ति समाज की मान्यताओं और विधाओं के अनुसार अपना व्यवस्थापन नहीं कर पाता और उसका सामाजिक व्यवहार विफल हो जाता है, ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर उसके लक्ष्य को सिद्धि नहीं हो पाती, क्योंकि उसे समाज के अन्य सदस्यों का सहयोग नहीं प्राप्त होता। सामाजिक दंड के इसी भय से सामान्यतः व्यक्ति समाज में प्रचलित मान्य परंपराओं की उपेक्षा नहीं कर पाता, वह उनसे समायोजन का हर संभव प्रयास करता है। इस प्रकार समाज में व्यक्तियों के आपसी ताल-मेल, जीवन संघर्ष, समझौता एवं हर्ष-विषाद का क्रम चलता रहता है जिससे प्रत्येक समाज में सामाजिक पर्यावरण का निर्माण और अस्तित्व बना रहता है। स्थानीय समाज में देखने जाने वाले विभिन्न सामाजिक संस्थाओं को लोककला का केंद्र बनाया जाता है और उसमें प्रचलित रीतियाँ और कुरीतियों को लोकगीतों एवं कहानियों के माध्यम से सुनाया जाता है।
          धोबिया लोककला में भी सामाजिक संस्थाओं जैसे जादू-टोना, परिवार, जजमानी प्रथा, जाति प्रथा, दहेज प्रथा, विवाह, सामाजिक नातेदारी एवं संबंधों को गीतों के रूप में लिपिबद्ध किया जाता है और उसी स्थानीय समाज में गया जाता है। यही कारण है की धोबिया लोककला के विभिन्न स्वरूपों में स्थानीय समाज के वास्तविक स्वरूप का चित्रण देखने को मिलता है।

संस्कृति:
          सरल शब्दों मे हम कह सकते हैं कि संस्कृति उस विधि का प्रतीक है जिसके आधार पर हम सोचते हैं; और कार्य करते हैं। इसमें वे अमूर्त/अभौतिक भाव और विचार भी सम्मिलित हैं जो हमने एक परिवार और समाज के सदस्य होने के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं। एक सामाजिक वर्ग के सदस्य के रूप में मानवों की सभी उपलब्धियाँ उसकी संस्कृति से प्रेरित कही जा सकती हैं। कला, संगीत, साहित्य, वास्तुविज्ञान, शिल्पकला, दर्शन, धर्म और विज्ञान सभी संस्कृति के प्रकट पक्ष हैं। तथापि संस्कृति में रीतिरिवाज, परम्पराएँ, पर्व, जीने के तरीके, और जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण भी सम्मिलित हैं। अर्थात संस्कृति के अंदर किसी समाज में रहने वाले मानव के वे सभी व्यवहार सम्मिलित होते हैं जिसे मानव उस समाज का सदस्य होने के नाते ग्रहण करता है। समाज में रहते हुए मानव सामाजिक संस्थाओं के अधीन अपने सुख-दुख, रहन-सहन, हर-परिहास, हर्ष-विषाद एवं जीवन संघर्ष को  सरलतम तरीके से निर्वाह करता है और इन्हीं मानवीय और सामाजिक क्रियाओं का संचालन के दौरान जिस रूप में अपने मानो-भावों की अभिव्यक्ति अपने स्थानीय समाज में करता है, उसे लोक कला के नाम से जाना जाता है। क्योंकि यह अभिव्यक्ति वही स्थिर नहीं होती है बल्कि वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी सांस्कृतिक अभिज्ञानता एवं निरंतरता के रूप में हस्तांतरित होती रहती है। इसलिए विभिन्न समाजों में प्रचलित लोककलाओं की विषय वस्तु के रूप में उस समाज के संस्कृति के सभी तत्व सम्मिलित होते हैं।
          पूर्वाञ्चल क्षेत्र के मिर्ज़ापुर एवं गाजीपुर जिले में प्रचलित धोबिया लोककला की विशेषता भी यही है कि इस लोककला में धोबी समाज में प्रचलित विभिन्न सांस्कृतिक क्रिया-कलाप एवं धोबिया संस्कृति के तत्वों को धोबिया लोक कलाकार इस लोककला के विभिन्न स्वरूपों में सम्मिलित करते हैं। इसीलिए धोबिया लोककला के विषय वस्तु में धोबिया संस्कृति को प्रमुखता प्रदान है, जिसे निम्नलिखित धोबिया गीत देखा जा सकता है।
दिन भर धोबी घाट पर सुखला मोर चाम हो॥
टिकुली जे मार के तू करेलु आराम हो॥
          इसी प्रकार धोबी जाति में विभिन्न त्यौहारों के खुशहली में विभिन्न प्रकार के लोकगीतों को गया जाता है जिसे स्थानीय समाज में बहुत पसंद किया जाता है। इन गीतों में पर्वों कि विशेषता का वर्णन किया जाता है। जैसे-
दशहरा दिवाली छट सब बित गेल प्रदेश मे,
फगुआ मे रंग अबिर खेलैत छली अंगना बारी मे,
साथी-सँगी  सँग-सँग जाई छी दुवारी दुवारी,
रंग से नहबै छी बाल्टी भैर भैर पानी॥
जीवन संघर्ष:
          धोबी जाति का जीवन बहुत कठिन होता है जिसमें वह दिनभर घाट पर कपड़े धोते हुए बीतता है और दिन भर के कार्य को वह अपने जीवन संघर्ष के रूप में बयान करता है। यही कारण है कि धोबिया लोकगीत में समान्यतः एक धोबी और धोबिन के आपसी जीवन को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। इसके अलावा धोबी समाज में पारिवारिक जीवन संघर्ष को भी केंद्र में रखा जाता है क्योंकि धोबिया लोकगीत की रचना करने वाला स्वयं ही एक धोबी होता है जो अपने जीवन संघर्ष को स्वयं अपने स्वरों में गाता है। प्रारम्भ में धोबिया लोकगीतों को सीधे उन्हीं समाजों में सुना जाता था, परंतु आज इन गीतों को लिखने वाले वे भी लोग होते है जो धोबी जाति के लोगों के जीवन संघर्ष को बहुत नजदीक से देखते हैं।           
पौराणिक कथाएँ:
          पौराणिक कथाएँ धोबिया लोक कलाओं की एक प्रमुख विषय-वस्तु है जिसमें स्थानीय लोक कथाओं के अलावा सार्वभौमिक लोककथाओं को भी गया जाता है। धोबिया पौराणिक कथाओं में सबसे ज्यादा शिव-पार्वती, राम-सीता, कृष्ण-राधा और भीम-तुलसी की कथाएँ सुनने को मिलती हैं। इसके अलावा स्थानीय लोककथाओं जैसे डीह बाबा की कथा, बाजू बाबा की कथा, टेडुया बाबा की कथा, भण्डारी माई की कथा इत्यादि प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा घरेलू देवी-देवता की कथाएँ भी गीतों के रूप में गयी जाती हैं। जैसे की कृष्ण के द्वारा गोपियों के दहि मटकी फोड़ने की क्रिया धोबिया लोक गीतों की रोचकता है। -
किछू दिन कान्हा गऊवा के चरावत बाटें
किछू दिन गावे कान्हा गीत,
किछू दिन कान्हा मजवा उडावे
सौरह सौ गुवालीन के बीच।
स्थानीय कहानियाँ एवं मुहावरें:
          धोबिया लोककला में स्थानीय कहानियों और मुहावरों से संबन्धित कथाएँ एवं गीत गए जाते हैं, जैसे बैजु बाबा के जीवन से संबन्धित कहानियों को सुनाते हैं। बाजू बाबा एक गरीब घर के थे जिन्होंने अपना घर-बार छोड़ दिया था और वे जिस किसी के सर पर हाथ फेर देते थे उसके सभी दुख खत्म हो जाते थे। बाजू बाबा के कार्यों को गीतो के रूप में भी गाया जाता है। इसके अलावा तुलसी और भीम देव की कहानियाँ भी धोबी जाति में प्रचलित हैं। धोबी जाति की महिलाएं एवं बुजुर्ग लोग बच्चों को “जादुई हरेवा-परेवा” की कहानियाँ भी सुनाते हैं। विभिन्न राजा और रानी की कहानियाँ धोबी जाति में बहुत प्रचलित हैं जिसका उद्देश्य बच्चों में सामाजिक मूल्यों की सीख देना होता है।  
स्थानीय पारिस्थितिकी:
          स्थानीय पारिस्थितिकी से तात्पर्य उस पर्यावरण से है जिस पर्यावरण में धोबी जाति के लोग अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। धोबी जाति के गाँव जिस शहर के नजदीक होते हैं वे उस शहर के प्राकृतिक छटा और उसके पौराणिक इतिहास का वर्णन धोबिया गीतों एवं कथाओं में करते हैं। इसके साथ ही साथ उस गाँव के प्राकृतिक छटा को भी गीत के रूप में गाते हैं। जैसे प्रस्तुत शोध का विषय क्षेत्र पूर्वाञ्चल का मिर्ज़ापुर एवं गाजीपुर जिला था जो पौराणिक और धार्मिक नगरी वाराणसी से बहुत नजदीक है। वाराणसी पौराणिक और धार्मिक दृष्टि से बहुत प्रसिद्ध है और यहाँ अनेकों ऐसे स्थान है जो किसी विशेष उत्पाद के लिए प्रसिद्द हैं। इसी विशेष प्रसिद्धि को धोबी जाति के लोग अपने गीतों में शामिल भी करते हैं। जैसे की एक धोबिन अपने पति से कहती है कि मुझे एक दिन बनारस घूमा दो और उस के गीत में वाराणसी के विभिन्न स्थानों का वर्णन करती है जिसे वह देखना चाहती है।
ए राजा हमके बनारस घूमाद
चल के गोदौलिया के पनवा खियाद
चला चौका पे चम-चम चीखादी
ठंठायी पियादी और पनवा खियादी
ए राजा हमके बनारस घूमाद॥
आधुनिक परिवर्तन:
          धोबिया लोककला में वर्तमान समय में आधुनिक परिवर्तन से संबन्धित विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक परिवर्तन को केंद्र में रखकर गीत गए जाते हैं। आधुनिका के दौर में हुए परिवर्तनों जैसे- नारी सशक्तिकरण, जाति प्रथा उन्मूलन, परिवार विघटन, संचार के माध्यमों, व्यावसायिक प्रवसन, विभिन्न सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग इत्यादि का प्रयोग धोबिया लोकगीतों में देखने को मिलता है। जैसे के एक धोबिया लोकगीत में संयुक्त परिवार के विघटन पर गीत सुनने को मिलता है।
घर कैसे बिगड़ी हो, घर कैसे  सुघरी
होला जब रूपिया गिनउवल
ताबे नु होला बख़रा बटउवल

रूप विधान एवं प्रेम:
धोबिया लोककला में रूप विधा एवं प्रेम पर आधारित गीतों की बहुलता है क्योंकि वर्तमान समय में धोबिया लोककलाकर स्त्रियों के रूप रंग और रूप विधान पर गीतों को लिखते हैं और गाते हैं। इसके साथ ही साथ स्त्रीय प्रेम को भी धोबिया लोककला का प्रमुख बिन्दु माना जाता है। पति-पत्नी के आपसी प्रेम को भी धोबिया लोकगीत में गाकर नृत्य किया जाता है। इसके साथ ही साथ ननद-भौजाई के प्रेम और नोक-झोक को भी धोबिया लोकगीत के रूप में गाया जाता है। जैस की प्रस्तुत लोकगीत में स्त्री के रूप विधान को झलक दिखाई देती है।
मारे हो जन मरकहवा कजरवा
ले ले ई परान मरकहवा कजरवा
मरेहो जन मरकहवा कजरवा
हमरो शृंगार मरकहवा कजरवा
मारे हो जन मरकहवा कजरवा
          धोबिया लोककला में स्त्री के रूप विधान के अलावा शृंगार प्रसाधन, वस्त्र-आभूषण, पत्र-लेखन (प्रेमी-प्रेमिका के बीच), दैनिक भोजन एवं स्त्री के मनमोहन नखरे को भी धोबिया गीत की विषय वस्तु माना जाता है। जैसे एक गीत में औरत की जरूरत को लेकर गीत गाया जाता है।
अरे भौजी जबले आयी न मेहरिया हो,
तब ले करब ना नोकरीया हो।
मेहर होली अइसन ललकहरा हो,
देवर जइबा नाही बहरा हो।
लोक विश्वास:

          धोबिया लोककला में लोकविश्वास का सबसे प्रमुख स्थान होता है क्योंकि धोबी जाति के लोग स्थानीय परिवेश में प्रचलित लोक विश्वासों के प्रति विशेष बल देते है और इन्हीं विश्वासों को गीतों और कहानियों के रूप में सुनाते हैं।