Thursday, 30 March 2017


धोबिया लोककला की विषय-वस्तु:
          धोबिया लोककला एक ऐसी विधा के रूप में प्रचलित है जिसे लोकसाहित्य के रूप में भी देखा जा सकता है क्योंकि धोबिया लोककला में गीत, कहानियाँ, नृत्य, कथाएँ, गाथाएँ, मिथक, मुहावरें, लोकोक्तियाँ, संगीत, वाद्य-यंत्र एवं वेश भूषा इत्यादि होते हैं। जो मौखिक परंपरा के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस स्थानीय समाज में देखने को मिलता है। धोबिया लोककला के विभिन्न स्वरूपों में उसकी विशेष विषय-वस्तु कि झलक देखने को मिलती है। धोबी जाति कि पारंपरिक लोककला में धोबी जाति के समाज, संस्कृति एवं सांस्कृतिक परिवर्तन  एवं एक धोबी के स्वयं के जीवन संघर्ष को केंद्र में रख कर प्रस्तुत किया जाता है। इसके साथ ही साथ आधुनिक समय में हुए सांस्कृतिक परिवर्तनों को भी धोबिया लोक कला के विषय-वस्तु के रूप में देखा जा सकता है। धोबिया लोककला के विभिन स्वरूपों में परिलक्षित होने वाले विषय-वस्तुओं का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है।
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मानव:    
          समाज की प्रथम इकाई के रूप में मानव का स्थान आता है जिसने अपने विभिन्न व्यवहारों से समाज का निर्माण किया था और उसके द्वारा किया जाने वाला विभिन्न व्यवहार ही संस्कृति के नाम से जानी जाती है। मानव हमेशा क्रियाशील रहता है और अपनी क्रिया और कार्य से समाज में जीवन का निर्वाह करता है। समाज में मानव का भिन्न-भिन्न प्रस्थिति होती है जिसका निर्धारण उसका समाज करता है और इस प्रस्थिति के अनुरूप ही मानव विभिन्न प्रकार की भूमिका का निर्वाह करता है। समाज में मानव दो प्रकार से भूमिका का निर्वाह करते हुए समाजीकरण को प्रदर्शित करता है, जिसे आरोपित एवं अर्जित भूमिका कहते हैं। अतः मानव एक ऐसा प्राणी है जो समाज में रहते हुए मानवों के समूह से आपसी संबंध का निर्माण करता है। इसीलिए फिक्टर (1957:19) ने मानव के संबंध में कहा है कि “व्यक्ति एक अकेला किन्तु मिश्रित एवं जटिल प्राणी है।” विभिन्न लोक कलाओं में मानव के प्रस्थिति एवं भूमिका को केंद्र में रखा जाता है, जिसे लोक कलाकार स्थानीय समाज और उसकी संस्कृति का अभिन्न अंग मानते हुए गीतों, कहानियों, मुहावरों, नृत्यों, कथाओं एवं गाथाओं में प्रदेशित करते हैं ताकि उस समाज में मानव के सामाजिक प्रस्थिति एवं भूमिका की जानकारी प्राप्त हो सके और समाजीकरण की प्रक्रिया नियमित रूप में संचालित हो सके। यही क्रम पूर्वाञ्चल क्षेत्र के मिर्ज़ापुर एवं गाजीपुर जिले में प्रचलित धोबिया लोककला के विभिन्न स्वरूपों में देखने को मिलती है। जैसे गीतों की रचना में करने वाले धोबी जाति के कलाकार मानव के जीवन संघर्ष को विशेष ध्यान रखते हैं। विभिन्न धोबिया लोग गीतों में धोबी और धोबिन के जीवन संघर्ष को देखा जा सकता है। इसी प्रकार नृत्य, कहानियों, मुहावरों, कथाओं, गाथाओं इत्यादि में धोबी का वर्णन स्वतंत्र रूप में देखने को मिलता है। अतः धोबिया लोक कला की प्रथम विषय वस्तु के रूप में मानव (धोबी-धोबिन) का प्रथम स्थान है। जैसे-
अरे ssssssss… धोबिया रे धोबिया…….
अरे तोहरे करजवा के शोर भइल धोबिया..... ।।
उची-उची जतिया के कुलीन धरनवा ......... ॥
दूर कइले धोबिया............... ॥
समाज:
          समाज मानवीय अंत:क्रियाओं के प्रक्रम की एक प्रणाली है। मानवीय क्रियाएँ चेतन और अचेतन दोनों स्थितियों में साभिप्राय होती हैं। व्यक्ति का व्यवहार कुछ निश्चित लक्ष्यों की पूर्ति के प्रयास की अभिव्यक्ति है। उसकी कुछ नैसर्गिक तथा अर्जित आवश्यकताएँ होती हैं - काम, क्षुधा, सुरक्षा आदि। इनकी पूर्ति के अभाव में व्यक्ति में कुंठा और मानसिक तनाव व्याप्त हो जाता है। वह इनकी पूर्ति स्वयं करने में सक्षम नहीं होता अत: इन आवश्यकताओं की सम्यक् संतुष्टि के लिए अपने दीर्घ विकासक्रम में मनुष्य ने एक समष्टिगत व्यवस्था को विकसित किया है। इस व्यवस्था को ही हम समाज के नाम से सम्बोधित करते हैं। यह व्यक्तियों का ऐसा संकलन है जिसमें वे निश्चित संबंध और विशिष्ट व्यवहार द्वारा एक दूसरे से बँधे होते हैं। व्यक्तियों की वह संगठित व्यवस्था विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न मानदंडों को विकसित करती है, जिनके कुछ व्यवहार अनुमत और कुछ निषिद्ध होते हैं।
          समाज में विभिन्न कर्त्ताओं का समावेश होता है, जिनमें अंत:क्रिया होती है। इस अंत:क्रिया का भौतिक और पर्यावरणात्मक आधार होता है। प्रत्येक कर्त्ता अधिकतम संतुष्टि की ओर उन्मुख होता है। सार्वभौमिक आवश्यकताओं की पूर्ति समाज के अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। तादात्म्यजनित आवश्यकताएँ संरचनात्मक तत्वों के सहअस्तित्व के क्षेत्र का नियमन करती है। क्रिया के उन्मेष की प्रणाली तथा स्थितिजन्य तत्व, जिनकी ओर क्रिया उन्मुख है, समाज की संरचना का निर्धारण करते हैं। संयोजक तत्व अंत:क्रिया की प्रक्रिया को संतुलित करते है तथा वियोजक तत्व सामाजिक संतुलन में व्यवधान उपस्थित करते हैं। वियोजक तत्वों के नियंत्रण हेतु संस्थाकरण द्वारा कर्ताओं के संबंधों तथा क्रियाओं का समायोजन होता है जिससे पारस्परिक सहयोग की वृद्धि होती है और अंतर्विरोधों का शमन होता है। सामाजिक प्रणाली में व्यक्ति को कार्य और पद, दंड और पुरस्कर, योग्यता तथा गुणों से संबंधित सामान्य नियमों और स्वीकृत मानदंडों के आधार पर प्रदान किए जाते हैं। इन अवधाराणाओं की विसंगति की स्थिति में व्यक्ति समाज की मान्यताओं और विधाओं के अनुसार अपना व्यवस्थापन नहीं कर पाता और उसका सामाजिक व्यवहार विफल हो जाता है, ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर उसके लक्ष्य को सिद्धि नहीं हो पाती, क्योंकि उसे समाज के अन्य सदस्यों का सहयोग नहीं प्राप्त होता। सामाजिक दंड के इसी भय से सामान्यतः व्यक्ति समाज में प्रचलित मान्य परंपराओं की उपेक्षा नहीं कर पाता, वह उनसे समायोजन का हर संभव प्रयास करता है। इस प्रकार समाज में व्यक्तियों के आपसी ताल-मेल, जीवन संघर्ष, समझौता एवं हर्ष-विषाद का क्रम चलता रहता है जिससे प्रत्येक समाज में सामाजिक पर्यावरण का निर्माण और अस्तित्व बना रहता है। स्थानीय समाज में देखने जाने वाले विभिन्न सामाजिक संस्थाओं को लोककला का केंद्र बनाया जाता है और उसमें प्रचलित रीतियाँ और कुरीतियों को लोकगीतों एवं कहानियों के माध्यम से सुनाया जाता है।
          धोबिया लोककला में भी सामाजिक संस्थाओं जैसे जादू-टोना, परिवार, जजमानी प्रथा, जाति प्रथा, दहेज प्रथा, विवाह, सामाजिक नातेदारी एवं संबंधों को गीतों के रूप में लिपिबद्ध किया जाता है और उसी स्थानीय समाज में गया जाता है। यही कारण है की धोबिया लोककला के विभिन्न स्वरूपों में स्थानीय समाज के वास्तविक स्वरूप का चित्रण देखने को मिलता है।

संस्कृति:
          सरल शब्दों मे हम कह सकते हैं कि संस्कृति उस विधि का प्रतीक है जिसके आधार पर हम सोचते हैं; और कार्य करते हैं। इसमें वे अमूर्त/अभौतिक भाव और विचार भी सम्मिलित हैं जो हमने एक परिवार और समाज के सदस्य होने के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं। एक सामाजिक वर्ग के सदस्य के रूप में मानवों की सभी उपलब्धियाँ उसकी संस्कृति से प्रेरित कही जा सकती हैं। कला, संगीत, साहित्य, वास्तुविज्ञान, शिल्पकला, दर्शन, धर्म और विज्ञान सभी संस्कृति के प्रकट पक्ष हैं। तथापि संस्कृति में रीतिरिवाज, परम्पराएँ, पर्व, जीने के तरीके, और जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण भी सम्मिलित हैं। अर्थात संस्कृति के अंदर किसी समाज में रहने वाले मानव के वे सभी व्यवहार सम्मिलित होते हैं जिसे मानव उस समाज का सदस्य होने के नाते ग्रहण करता है। समाज में रहते हुए मानव सामाजिक संस्थाओं के अधीन अपने सुख-दुख, रहन-सहन, हर-परिहास, हर्ष-विषाद एवं जीवन संघर्ष को  सरलतम तरीके से निर्वाह करता है और इन्हीं मानवीय और सामाजिक क्रियाओं का संचालन के दौरान जिस रूप में अपने मानो-भावों की अभिव्यक्ति अपने स्थानीय समाज में करता है, उसे लोक कला के नाम से जाना जाता है। क्योंकि यह अभिव्यक्ति वही स्थिर नहीं होती है बल्कि वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी सांस्कृतिक अभिज्ञानता एवं निरंतरता के रूप में हस्तांतरित होती रहती है। इसलिए विभिन्न समाजों में प्रचलित लोककलाओं की विषय वस्तु के रूप में उस समाज के संस्कृति के सभी तत्व सम्मिलित होते हैं।
          पूर्वाञ्चल क्षेत्र के मिर्ज़ापुर एवं गाजीपुर जिले में प्रचलित धोबिया लोककला की विशेषता भी यही है कि इस लोककला में धोबी समाज में प्रचलित विभिन्न सांस्कृतिक क्रिया-कलाप एवं धोबिया संस्कृति के तत्वों को धोबिया लोक कलाकार इस लोककला के विभिन्न स्वरूपों में सम्मिलित करते हैं। इसीलिए धोबिया लोककला के विषय वस्तु में धोबिया संस्कृति को प्रमुखता प्रदान है, जिसे निम्नलिखित धोबिया गीत देखा जा सकता है।
दिन भर धोबी घाट पर सुखला मोर चाम हो॥
टिकुली जे मार के तू करेलु आराम हो॥
          इसी प्रकार धोबी जाति में विभिन्न त्यौहारों के खुशहली में विभिन्न प्रकार के लोकगीतों को गया जाता है जिसे स्थानीय समाज में बहुत पसंद किया जाता है। इन गीतों में पर्वों कि विशेषता का वर्णन किया जाता है। जैसे-
दशहरा दिवाली छट सब बित गेल प्रदेश मे,
फगुआ मे रंग अबिर खेलैत छली अंगना बारी मे,
साथी-सँगी  सँग-सँग जाई छी दुवारी दुवारी,
रंग से नहबै छी बाल्टी भैर भैर पानी॥
जीवन संघर्ष:
          धोबी जाति का जीवन बहुत कठिन होता है जिसमें वह दिनभर घाट पर कपड़े धोते हुए बीतता है और दिन भर के कार्य को वह अपने जीवन संघर्ष के रूप में बयान करता है। यही कारण है कि धोबिया लोकगीत में समान्यतः एक धोबी और धोबिन के आपसी जीवन को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। इसके अलावा धोबी समाज में पारिवारिक जीवन संघर्ष को भी केंद्र में रखा जाता है क्योंकि धोबिया लोकगीत की रचना करने वाला स्वयं ही एक धोबी होता है जो अपने जीवन संघर्ष को स्वयं अपने स्वरों में गाता है। प्रारम्भ में धोबिया लोकगीतों को सीधे उन्हीं समाजों में सुना जाता था, परंतु आज इन गीतों को लिखने वाले वे भी लोग होते है जो धोबी जाति के लोगों के जीवन संघर्ष को बहुत नजदीक से देखते हैं।           
पौराणिक कथाएँ:
          पौराणिक कथाएँ धोबिया लोक कलाओं की एक प्रमुख विषय-वस्तु है जिसमें स्थानीय लोक कथाओं के अलावा सार्वभौमिक लोककथाओं को भी गया जाता है। धोबिया पौराणिक कथाओं में सबसे ज्यादा शिव-पार्वती, राम-सीता, कृष्ण-राधा और भीम-तुलसी की कथाएँ सुनने को मिलती हैं। इसके अलावा स्थानीय लोककथाओं जैसे डीह बाबा की कथा, बाजू बाबा की कथा, टेडुया बाबा की कथा, भण्डारी माई की कथा इत्यादि प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा घरेलू देवी-देवता की कथाएँ भी गीतों के रूप में गयी जाती हैं। जैसे की कृष्ण के द्वारा गोपियों के दहि मटकी फोड़ने की क्रिया धोबिया लोक गीतों की रोचकता है। -
किछू दिन कान्हा गऊवा के चरावत बाटें
किछू दिन गावे कान्हा गीत,
किछू दिन कान्हा मजवा उडावे
सौरह सौ गुवालीन के बीच।
स्थानीय कहानियाँ एवं मुहावरें:
          धोबिया लोककला में स्थानीय कहानियों और मुहावरों से संबन्धित कथाएँ एवं गीत गए जाते हैं, जैसे बैजु बाबा के जीवन से संबन्धित कहानियों को सुनाते हैं। बाजू बाबा एक गरीब घर के थे जिन्होंने अपना घर-बार छोड़ दिया था और वे जिस किसी के सर पर हाथ फेर देते थे उसके सभी दुख खत्म हो जाते थे। बाजू बाबा के कार्यों को गीतो के रूप में भी गाया जाता है। इसके अलावा तुलसी और भीम देव की कहानियाँ भी धोबी जाति में प्रचलित हैं। धोबी जाति की महिलाएं एवं बुजुर्ग लोग बच्चों को “जादुई हरेवा-परेवा” की कहानियाँ भी सुनाते हैं। विभिन्न राजा और रानी की कहानियाँ धोबी जाति में बहुत प्रचलित हैं जिसका उद्देश्य बच्चों में सामाजिक मूल्यों की सीख देना होता है।  
स्थानीय पारिस्थितिकी:
          स्थानीय पारिस्थितिकी से तात्पर्य उस पर्यावरण से है जिस पर्यावरण में धोबी जाति के लोग अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। धोबी जाति के गाँव जिस शहर के नजदीक होते हैं वे उस शहर के प्राकृतिक छटा और उसके पौराणिक इतिहास का वर्णन धोबिया गीतों एवं कथाओं में करते हैं। इसके साथ ही साथ उस गाँव के प्राकृतिक छटा को भी गीत के रूप में गाते हैं। जैसे प्रस्तुत शोध का विषय क्षेत्र पूर्वाञ्चल का मिर्ज़ापुर एवं गाजीपुर जिला था जो पौराणिक और धार्मिक नगरी वाराणसी से बहुत नजदीक है। वाराणसी पौराणिक और धार्मिक दृष्टि से बहुत प्रसिद्ध है और यहाँ अनेकों ऐसे स्थान है जो किसी विशेष उत्पाद के लिए प्रसिद्द हैं। इसी विशेष प्रसिद्धि को धोबी जाति के लोग अपने गीतों में शामिल भी करते हैं। जैसे की एक धोबिन अपने पति से कहती है कि मुझे एक दिन बनारस घूमा दो और उस के गीत में वाराणसी के विभिन्न स्थानों का वर्णन करती है जिसे वह देखना चाहती है।
ए राजा हमके बनारस घूमाद
चल के गोदौलिया के पनवा खियाद
चला चौका पे चम-चम चीखादी
ठंठायी पियादी और पनवा खियादी
ए राजा हमके बनारस घूमाद॥
आधुनिक परिवर्तन:
          धोबिया लोककला में वर्तमान समय में आधुनिक परिवर्तन से संबन्धित विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक परिवर्तन को केंद्र में रखकर गीत गए जाते हैं। आधुनिका के दौर में हुए परिवर्तनों जैसे- नारी सशक्तिकरण, जाति प्रथा उन्मूलन, परिवार विघटन, संचार के माध्यमों, व्यावसायिक प्रवसन, विभिन्न सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग इत्यादि का प्रयोग धोबिया लोकगीतों में देखने को मिलता है। जैसे के एक धोबिया लोकगीत में संयुक्त परिवार के विघटन पर गीत सुनने को मिलता है।
घर कैसे बिगड़ी हो, घर कैसे  सुघरी
होला जब रूपिया गिनउवल
ताबे नु होला बख़रा बटउवल

रूप विधान एवं प्रेम:
धोबिया लोककला में रूप विधा एवं प्रेम पर आधारित गीतों की बहुलता है क्योंकि वर्तमान समय में धोबिया लोककलाकर स्त्रियों के रूप रंग और रूप विधान पर गीतों को लिखते हैं और गाते हैं। इसके साथ ही साथ स्त्रीय प्रेम को भी धोबिया लोककला का प्रमुख बिन्दु माना जाता है। पति-पत्नी के आपसी प्रेम को भी धोबिया लोकगीत में गाकर नृत्य किया जाता है। इसके साथ ही साथ ननद-भौजाई के प्रेम और नोक-झोक को भी धोबिया लोकगीत के रूप में गाया जाता है। जैस की प्रस्तुत लोकगीत में स्त्री के रूप विधान को झलक दिखाई देती है।
मारे हो जन मरकहवा कजरवा
ले ले ई परान मरकहवा कजरवा
मरेहो जन मरकहवा कजरवा
हमरो शृंगार मरकहवा कजरवा
मारे हो जन मरकहवा कजरवा
          धोबिया लोककला में स्त्री के रूप विधान के अलावा शृंगार प्रसाधन, वस्त्र-आभूषण, पत्र-लेखन (प्रेमी-प्रेमिका के बीच), दैनिक भोजन एवं स्त्री के मनमोहन नखरे को भी धोबिया गीत की विषय वस्तु माना जाता है। जैसे एक गीत में औरत की जरूरत को लेकर गीत गाया जाता है।
अरे भौजी जबले आयी न मेहरिया हो,
तब ले करब ना नोकरीया हो।
मेहर होली अइसन ललकहरा हो,
देवर जइबा नाही बहरा हो।
लोक विश्वास:

          धोबिया लोककला में लोकविश्वास का सबसे प्रमुख स्थान होता है क्योंकि धोबी जाति के लोग स्थानीय परिवेश में प्रचलित लोक विश्वासों के प्रति विशेष बल देते है और इन्हीं विश्वासों को गीतों और कहानियों के रूप में सुनाते हैं। 

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