मीडिया, आदिवासी और नक्सलबाड़ी आंदोलन
शिव कुमार[1]
वास्तव में हमारे देश में या यूँ कहें
कि पूरे विश्व में बहुत से ऐसे मसले होते हैं, जिन्हें
जनता ये समझती है कि हमारे मसले नहीं हैं और इनसे हमारा क्या लेना देना है? यही कारण है कि वो इन मसलों को ध्यान नहीं देते हैंऔर जहाँ तक बुद्धिजीवी
वर्ग की बात है तो, वह इन सब मसलों बारे में सोचना ही नहीं
चाहता है। सभ्य समाज का प्रतिनिधित्वकरने वाले यही कह कर अपना पीछा छुड़ाते हैं कि ‘इन मसलों से मेरा क्या लेना-देना है’? ऐसा ही एक मसला
और गंभीर समस्या है- नक्सल की। पूरी दुनिया सूचना के व्यापार में लिप्त है। यदि इस
वक्त किसी चीज का सबसे ज्यादा व्यापार हो रहा है तो, वह है
सूचनाओं का। अगर देखा जाय तो हम एक तरह से ‘सूचना समाज’(Information
Society) हैं औरसूचनाएं बाटते हैं। हम ‘अभिविन्यास
समाज’ (Oriented Society)के नाम से भी
जाने जाते हैं, जिसे ‘ITIndustry’कहते
हैं।अर्थात वर्तमान सूचना समाज के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि संकट भी वहीं
आता है, जहाँ सूचनाऔर संवाद नहीं होता है । दुनिया में कुछ
मुद्दे ऐसे भी थे, जिनसे लोगों को जागरूक किया गया होता तो
शायद ऐसी भयानक स्थिति उत्पन्न नहीं हुई होती। वियतनाम और इराक के उदाहरण सबके
सामने मौजूद हैं। यदि अमेरिकी जनता और उस मुद्दे से जुड़े हुए लोगों को इराक और
वियतनाम के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी गयी होती और उन्हें जमीनी सच्चाई से
आगाह किया गया होता तो शायद, यह मुद्दा इतना भयावह नहीं हुई
होती।
वर्तमान समय में सूचनाओं का अपना एक
अलग महत्व है और आज सभी लोग सूचनाओं की ही बात करते हैं। आज के सूचना समाज में
सबसे प्रमुख भूमिका अगर कोई अदा कर रह है तो वह है मीडिया। मीडिया इस समाज के सबसे
बड़े हिस्से में आता है। दुनिया में जब-जब लोकतंत्र संकट में आता है या जब-जब दो
सत्ताएँ आपस में टकराती हैं अथवा जब-जब जनता उत्प्रेरित होती है, तब-तब नागरिक नाकेबंदी या नागरिक प्रतिरोध उभरता है और तब-तब मीडिया का
महत्व बढ़ जाता है। क्योंकि मीडिया एक तरह से समाज और सत्ता के बीच पारस्परिक संबंध
निभाता है । दोनों एक ऐसी नातेदारी से बधे हुये हैं, जिसे
नमक की नातेदारी भी कह सकते हैं। यदि और भी सरल भाषा में कहे तो दोनों एक दूसरे का
नमक खा रहे । अर्थात समाज, सत्ता और मीडिया तीनों नमक के
रिश्ते में बंधे हैं और इनके बीच नमक कि रिश्तेदारी देखी जा सकती है । यहाँ एक और
प्रमुख बिन्दु है जिसे बाजार कहते हैं और वह उसमें सेंधमारी कर रहा है। अर्थात
बाजार उस नातेदारी के नमक को चाट रहा है। यही कारण है कि वर्तमान समय में हमारे
समाज में बहुत सारी समस्यायें उभरी हैंऔर कुछ समस्याएंइतनी भयानक हो चुकी है जिससे
निवारण के लिए हमारे सामने रास्ते भी सीमित हैं । उनमें से ही एक गंभीर समस्या है
नक्सल, जो आतंक का वेश धारण करके पूरे देश में विकराल रूप
लेता जा रहा है।
दूसरी ओर इस तरह कि समस्या से जुड़े
हुए नक्सली नेता भी अपने साक्षात्कार के माध्यम से यही कहते हैं कि सरकार और
मीडिया नक्सली आंदोलनों की गलत छवि प्रस्तुत करते हैं । जबकि मीडिया का
प्रारम्भिक उद्देश्य किसी भी सूचना को जनता तक उसके वास्तविक रूप में पहुँचाना है
। इसीलिए मीडिया को सही सूचनाएँ पहुंचाने के लिए जाना जाता है।मीडिया जिन लोगों को
आदिवासी कहती है उनके पास तो खाने तक को कुछ नहीं हैं, फिर वो लोग कहाँ से बंदूकें लाएँगे। हम ये कदापि नहीं कह सकते कि सारे
आदिवासी नक्सली हैं। यदि इसके गहराई में जाये तो सबसे प्रमुख समस्या यही देखने
मिलती है कि मीडिया नक्सली नेताओं से साक्षात्कार लेती तो जरूर है, परंतु उन सूचनाओं को उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाती अथवा
यूँ कहें कि करती ही नहीं है और इसप्रक्रिया में सरकार भी इनका साथ देती है।
मीडिया सूचनाओं को सनसनी बनाने के चक्कर में सूचनाओं को सही रूप से जनता के सामने
प्रस्तुत नहीं करती हैं। उदाहरण के रूप में देखें तो एक सर्वप्रचलित घटना है- ‘ग्रीन हंट ऑपरेशन’की । इस ऑपरेशनको मीडिया द्वारा जन्म दिया गया था ।
जबकि सरकार का कहना था कि हम एक ऐसे ऑपरेशनपर काम कर रहे हैं, जो नकसलवादियों के दमन से जुड़ा है लेकिन वो ग्रीन हंट ऑपरेशन नहीं है। अब
यह जानना जरूरी है कि ग्रीन हंट ऑपरेशन क्या है? एक समय जब
नक्सली आंदोलन बहुत उग्र हो गया, तब सरकार ने नक्सल के खिलाफ
दमनकारी नीति को अपनाने का निर्णय लिया, लेकिन उसे कोई नाम
नहीं दिया। इसी सूचना को मीडिया ने सनसनी बनाए के लिए ग्रीन हंट ऑपरेशन नाम दे
डाला और इतना बढ़ा चढ़ा के प्रस्तुत भी किया कि भारतीय जनता ने इस पर विश्वास भी कर
लिया। इसी दौरान यह अफवाह भी उड़ाया गया कि आदिवासीय क्षेत्रों में ‘लाल गलियारा’ और ‘लाल आतंक’ नामक आंदोलन भी जल रहा है, जो सरकारी व्यवस्था के
खिलाफ है। कहने का तात्पर्य यह है कि मीडिया खबरों को सनसनी बनाने और एक दूसरे से
आगे बढ़ने के चक्कर में जनता को सही सूचनाएँ नहीं पहुँचा पाती हैं। इलेक्ट्रोनिक
मीडिया पर नजर रखने वाली एक एजेंसी ने कहा कि ग्रीन चैनल नक्सलवाद के मामले में
ठीक उसी तरह कि गलतियाँ कर रहा है, जिस प्रकार से मुंबई हमले
के सीधे प्रसारण के दौरान हुई थी। मीडिया के सीधे प्रसारण के कारण सुरक्षा बलों की
सूचनाएँ आतंकियों को भी हो रही थी।
आजकल एक मीडिया दूसरे मीडिया से आगे
बढ़ने में लगी है।शायद इसलिए वो सूचनाओं को महत्व नहीं देती है। ये लोग सूचनाओं को
दूसरे से अच्छा और आकर्षक बनाने में लगी रहती हैं। शायद इन्हें यह ज्ञात ही नहीं
चलता कि सूचनाओं का महत्व तभी तक होता है, जब तक वह
सूचना अपने वास्तविक रूप और भाषा के साथ-साथ वास्तविक परिस्थिति में होती हैं।
इन्हें तो सूचनाओं को तोड़-मरोड़ कर जनता में सनसनी मचाने की होड़ लगी हैं। यही कारण
है कि मीडिया अपने मूल कर्तव्यों से दूर भागती जा रही है। ध्यान देने वाली बात यह
भी रहा है कि मीडिया समय-समय पर अपने आप को बड़े संसय में डालता रहता है, क्योंकि यह हमेशा किसी घटना के घटने के बाद में ही घटित स्थान पर पहुँचता
है। रही बात आदिवासी और नक्सली क्षेत्रों कि तो वहाँ मीडिया और मीडियाकर्मी बहुत
कम ही जाते हैं। यदि कोई मीडिया पहुँच भी जाती है, तो वह उस
घटना कि जानकारी सर्वप्रथम जिम्मेदार अधिकारियों और नेताओं से ही प्राप्त करती है
और यह धारणा बना लेती है कि आदिवासियों या नक्सलियों की ही गलती रही होगी। ये
प्रमुख अभियुक्त से सीधा संबंध नहीं बनाते क्योंकि इसमें उनको भी खतरा रहा है
क्योंकि इस प्रकार की घटना में इन्हें भी घसीटा जा सकता है। यदि उन्हें वास्तविक
सूचना मिल भी जाती है तो उसे सनसनी बनाने के चक्कर में उसमें मिलावट ला देती हैं, जिससे सूचना अपनी वास्तविकता खो देता है।
नक्सल
क्या और कहाँ से आया ?
नक्सलबाड़ी आंदोलन कीशुरुआत 60 के दशक
के अंतिम समय में हुई थी। उन दिनों देश की व्यवस्था के विरोध में कई जगह आंदोलन
चले। 1967 के चुनाव में पहली बार कांग्रेस कई राज्यों में भारी पड़ा और कई राज्यों
में विपक्ष भारी रहा। उसी दौरान देश में कई तरह के संकट पैदा हो रहे थे। पंडित
जवाहर लाल नेहरू द्वारा चलायी जा रही नीतियों में एक जगह ठहराव आ गया। तब एक नए
विकल्प की आवाज उठने लगी। इसी उथल-पुथल की स्थिति में नक्सलबाड़ी का जन्म हुआ। उसी
समय कम्युनिस्ट आंदोलन की लहर चल रही थी, अब उसके
सामने एक सवाल खड़ा हो गया कि वो क्या करे? तब कम्युनिस्ट
पार्टी ने सरकार चलाने का दारोमदार उठाया। जबकि नक्सलबाड़ी आन्दोलन की शुरुआत ही
कम्युनिस्ट आंदोलन के परिणाम स्वरूप हुई थी। उसी समय एक ओर पश्चिम बंगाल में
वामपंथी सरकार बनी और दूसरी ओर पश्चिम बंगाल में ही नक्सलबाड़ी आंदोलन खड़ा हो गया। नक्सलबाड़ी
आंदोलन सत्ता की व्यवस्था के विरोध में सरकार के सामने खड़ी हो गयी थी। दोनों
धाराओं के आमने सामने खड़े हो जाने की स्थिति में वामपंथी सरकार चलाने में काफी
मसक्त करनी पड़ रही थी और सबसे बड़ी गलती उस समय हुई जब वामपंथी सरकार ने नक्सलबाड़ी
आंदोलनों को समझने का एकदम प्रयास भी नहीं किया। बल्कि इन नक्सली आंदोलनों के
खिलाफ दमनकारी नीति अपनायी, जिससे यह और भी उग्र हो गयी।
इसका प्रमुख कारण यह था कि वामपंथी सरकार कम्युनिस्ट पार्टी से अपने आप को अलग
रखती थी। वामपंथी सरकार का कहना था कि नक्सली लोग सरकार के विरोध में हैं, उन्हें सरकार और सरकारी लोगों से नफरत है। इसलिए उनका विरोध किया जाना
चाहिए। जब देश में नक्सली हिंसा अधिक बढ़ने लगा तो केंद्र से भी यह आदेश मिला कि
पश्चिम बंगाल में कानून व्यवस्था बिगड़ रही है और उसे सुधारने की कोशिश करें। अंततः
पश्चिम बंगाल सरकार ने नक्सलबाड़ी आंदोलनों को जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रण किया।
जिसका परिणाम यह हुआ कि इसमें बहुत से लोग मारे गए, जिससे
पूरे देश में रोष हुआ। यहीं से नक्सलबाड़ी आंदोलन को बढ़ने के लिए एक बड़ी आग मिली।
परंतु ध्यान देने की बात है कि उस समय से लेकर अब तक इन नक्सली आंदोलनों को सरकार
द्वारा सुलझाना तो दूर समझने का भी प्रयास नहीं हुआ है।
60वें दशक के अंत तक नक्सलबाड़ी आंदोलन
जन्म ले रहा था। यदि उसी समय नक्सल और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में रह रहे
आदिवासियों की समस्याओं को सुना जाता तो शायद यह परिस्थिति उत्पन्न नहीं हुई होती।
यह भी ध्यान देने वाली बात है कि उस वक्त की मीडिया के नाम पर मात्र अखबार ही था।
परंतु उस समय अखबार मीडिया संकुचित थी, जो सूचनाओं
और समस्याओं को देखकर अनदेखा कर देती थी। इसका सबसे बड़ा कारण यह माना जा सकता है
कि उस समय अखबारों के संपादक ही इन सूचनाओं को दबा देते थे। वे तो यह भी नहीं बता
पाती थी कि कौन-सी समस्या स्थानीय है और कौन-सी राष्ट्रीय । अर्थात उस समय कि
मीडिया ने सूचनाओं को महत्व भी नहीं दिया और इसके साथ ही साथ उसने प्रयास भी नहीं
किया । इसमें एक प्रमुख कारण यह भी रहा है कि उस वक्त की मीडिया और मिडियाकर्मी
सरकार के विरोध में नहीं जाते थे, क्योंकि उससे उनको हानी हो
सकती थी । इस शोध पत्र का उद्देश्य यह नहीं है कि नक्सलबाड़ी आंदोलनों की प्रशंसा
करना और मीडिया की गलतियों को गिनाना। इस बात से नकार नहीं किया जा सकता है कि मीडिया
ने ही देश और समाज के कोने-कोने से छोटी से छोटी सूचनाओं को जनता के सामने लाने का
काम किया है, जिससे आज कि जनता इतनी अधिक जागरूक हो पायी है
। लेकिन यह स्वीकार्य भी करना चाहिए कि मीडिया से कहीं न कहीं ऐसा हुआ है, जिससे नक्सल की समस्या इतनी विस्तृत और उग्र हो गयी है जिसका परिणाम पूरा
देश भुगत रहा है। मीडिया को यह भली-भांति जान लेना चाहिए कि अखबारों में छपने का
तात्पर्य आम जनता यह मानती है कि वह जन विश्वास है। मीडिया को यह ध्यान होना चाहिए
कि जो जन विश्वास है, उसे बनाए रखना चाहिए। मीडिया को यह भी
ध्यान रखना चाहिए कि आपके द्वारा दी गयी सूचना पर आम जनता विश्वास करती है। यहाँ
तक कि इन सूचनाओं को व्यक्तिगत तौर पर भी इस्तेमाल करने लगती है। कहने का तात्पर्य
यह कि जनता का मीडिया पर जो जन विश्वास है उसे टूटने नहीं देना चाहिए । यदि यह जन
विश्वास बना रहेगा तो सूचनाएँ वास्तविक रूप से जनता को प्राप्त होंगी, जिससे किसी भी समस्या का उचित समाधान निकाला जा सकता है।
हमारे सामने एक प्रमुख समस्या यह भी
रही है कि जो लोग आदिवासीय जीवन को भली-भाँति समझते और महसूस करते हैं । वे राजनीति
में सत्ता के पदों पर बैठने के बाद आधुनिक सभ्यता के सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार
कर लेते हैं और उन आदिवासियों के लिए खड़े नहीं हो पाते हैं। वे सत्ता में जाकर वही
करने लगते हैं, जो व्यवस्था चलाने वाले करते हैं । वे
औद्योगिक महानगरीय व्यवस्था के हाथ में आदिवासीय अस्मिता के प्रतीक बनकरआदिवासीय
जीवन को और नष्ट करने में बढ़ावा देते हैं। जंगलों के बिना जल और जमीन दोनों नष्ट
होंगे और सम्पूर्ण मानव जीवन को अपना अस्तित्व बनाये रखने में कठिनाई होती जाएगी।
आज का सभ्य समाज वन्य जीवों को बचाना तो चाहता है, लेकिन
जंगलों को बचाने वाले आदिवासियों को भूलते जा रहे हैं। (जोशी,प्रभात:2001)
ऐसा नहीं है कि आदिवासियों के
प्रतिनिधित्व करने वालों तथा उनके हित में सोचने वालों की संख्या में कमी आ गयी
है। आदिवासी बाहुल्य राज्य जैसे- झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, असम, पश्चिम बंगाल इत्यादि
राज्यों में कई आदिवासी प्रतिनिधित्वकर्ता हैं, जो भली-भाँति
प्रकार से आदिवासीय जन-जीवन को समझते हैं। परंतु वो इस प्रकार से आदिवासियों के
हित में काम नहीं कर पाते हैं,जैसी उनको आवश्यकता है। जब कभी
भी आदिवासीय विमर्श की बात होती है तो उनका कहना होता है कि ‘इन आदिवासियों के साथ बहुत अत्याचार हुआ है’। परंतु
ध्यान देने वाली बात यह है कि इन आदिवासियों के साथ आचार ही कब हुआ है जो अत्याचार
होगा। कहने का मतलब यह है कि “पहले सही व्यवहार तो करो इसके बाद में अत्याचार
करना”। इसी क्रम में मीडिया और बड़े बुद्धिजीवी वर्ग भी अपने मतों को रखते हैं ताकि
उन्हें भी आदिवासी विचारक और सुधारक के रूप में जाना जाय। परंतु आज तक आदिवासीय
समाज के साथ उचित व्यवहार ही शुरू नहीं हुआ है, क्योंकि यह
सभ्य समाज आदिवासी समाज को सही ढंग से समझ ही नहीं पाया है । बात तब हास्यप्रद हो
जाती है जब बड़े राजनेताओं का कहना होता है कि आदिवासियों में अलगाव की भावना है, जो उनके विकास के रास्ते में बाधा उत्पन्न कर रही है । यहाँ पर एक और
सवाल उठता है कि आदिवासियों में अलगाव की भावना आयी कहाँ से?कहने
का अर्थ है की आदिवासी अलगाव महसूस क्यों कर रहे हैं?
अब जब अलगाव की बात आ ही गयी है तो यह
जान लेना आवश्यक है कि‘अलगाव’
शब्द का उद्भव कहाँ से हुआ है ।यदि हम इसके उत्पत्ति पर जाय तो पाएंगे कि यह शब्द
राजनेताओं और बुद्धिजीवी वर्गों द्वारा जन्म दिया गया है,जिससे
आदिवासी वर्ग कभी परिचित ही नहीं था। सभ्य समाज के लोगों ने कभी यह सोचा ही नहीं
कि आदिवासियों को लाभ देने से आदिवासी जीवन नहीं बचेगा। बल्कि उन्हें आदिवासियों
की सम्पूर्ण लोक संस्कृति को उनके द्वारा ही उसके मूल रूप में सुरक्षित करने और
उन्हें बढ़ावा देने का प्रयास करना चाहिए। इसमें केवल बुद्धिजीवी वर्ग के सहयोग की
अवश्यकता नहीं होगी, बल्कि आज की सुविकसित मीडिया को भी
प्रमुख भूमिका निभानी पड़ेगी। मीडिया को सूचना के व्यापार को छोड़कर आदिवासी और उनकी
समस्याओं को सही रूप में जनता के सामने रखना होगा।
आदिवासीय क्षेत्रों में पनपने वाले
नक्सली हिंसा को समर्थन देने का काम मीडिया नहीं कर सकती है। नक्सली या किसी भी
तरह की हिंसा पर मीडिया को सहानुभूति प्रकट करने का काम नहीं है, बल्कि मीडिया अपने मूल कर्तव्यों के आधार से कदम उठा सकती है। मीडिया का
काम सामाजिक सदभाव, समरसता और सभी के विकास के लिए प्रयास
करना होता है। मीडिया किसी भी तरह की हिंसा के पनपने और फैलने के मूल कारणों की
पड़ताल कर सकती है और अपने पड़ताल के आधार पर हिंसक आंदोलनों को चलाने वालों तथा
उसका समर्थन और दमन करने वाले दोनों को कटघरे में खड़ा करके सच जनता के सामने लाने
का प्रयास कर सकती है। मीडिया को किसी हिंसा का समर्थन या विरोध करने से बचना
चाहिए। इनका मूल कर्तव्य किसी घटना को बिना फेर-बदल किए उसके वास्तविक परिस्थिति
में प्रस्तुत करना है, ताकि जनता और सरकार उस पर उचित समाधान
एवं निर्णय ले सके।
सामाजिक
मीडिया (Social Media)
वर्तमान समय में नक्सल और आदिवासीय
समाज पर लिखने एवं पढ़ने वालों में सामाजिक मीडिया की भूमिका प्रमुख मानी जा सकती
है। सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि सामाजिक मीडियाक्या है? सामाजिक मीडिया एक ऐसी नवीनतम मीडिया हैजिसमेंकोई संपादक नहीं, कोई प्रेस नहीं और किसी प्रकार की कोई रुकावट नहीं होती है। इसमें एक
उच्च नागरिक से एक आम नागरिक या कोई भी सोशल मीडिया के रूप में हो सकता है। सबसे
महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें किसी के द्वारा लिखे आलेख या विचार दुनिया का कोई
भी व्यक्ति पढ़ सकता है और उस पर अपने विचार दे सकता है। अर्थात हम यह कह सकते हैं
कि आज के समय में सोशल मीडिया ही एक ऐसा माध्यम है जिसके सहारे किसी समाज की छोटी
से छोटी घटना और समस्या को सम्पूर्ण जनता के सामने रख सकते हैं। सोशल मीडिया के
माध्यम से आदिवासी विमर्श आज दुनिया के कोने कोने में पहुँच चुका है । परंतु ध्यान
देनी वाली बात है कि सोशल मीडिया भी आदिवासीय जन-जीवन को अभी तक नहीं समझ पायी है।
क्योंकि सोशल मीडिया में लोग वही लिखते और पढ़ते हैं जो इलेक्ट्रोनिक मीडिया और
सरकार द्वारा देखाया जाता है । एक और महत्वपूर्ण तथ्य है कि सभ्य समाज से लेकर एक
आम नागरिक भी आदिवासीय जीवन को नहीं समझ सका है। क्योंकि उसने प्रत्यक्ष रूप से
किसी आदिवासीयसमाज को देखा ही नहीं है, तो यह कल्पना कैसे कर
सकता है कि ‘आदिवासी और नक्सली में अंतर क्या है और इनकी
समस्याएँ कैसी हैं? कहने का तात्पर्य है कि यदि सोशल मीडिया
पर हम किसी के बारे में लिखते हैं तो कम से कम उस व्यक्ति को प्रत्यक्ष आँखों से
देख तो लें फिरइसके बाद अपने विचारों को सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों के सामने
रखें। अंत में यही कहना चाहिए कि “इलेक्ट्रोनिक मीडिया और
सोशल मीडिया दोनों को यह ध्यान देना चाहिए कि सूचनाओं का व्यापार न हो पाये और जिन
तक यह सूचना पहुँचना चाहिए उन तक उचित समय में पहुँच जाय”।
सुझाव-
यदि वास्तव में हम आदिवासीय जन-जीवन
को समझना और उनका विकास चाहते हैं तो सर्वप्रथम हमें उनके संस्कृति एवं लोक
परम्पराओं को उन्हीं के आधार पर समझना होगा। जहाँ आदिवासीय विकास की बात करते हैं
वहाँ यह ध्यान रखना होगा कि विकास का माध्यम और परिस्थिति दोनों ही आदिवासी
केन्द्रित (People centered) होना चाहिए । जैसे कि अगर
हम बात करतेहैं कि आदिवासी बहुत अच्छे ‘नृचिकित्सक’ होते हैं। उन्हें प्राकृतिक जड़ी-बूटियों का बहुत गहरा ज्ञान होता है, जिससे वे स्थानीय लोगों का उचित समय पर उपचार करने में समर्थ होते हैं ।
इनके इस प्रकार के देशज ज्ञान और कला को उनमें और भी विकसित कर उनको सम्मान देना होगा,जिससे उनके ज्ञान और विश्वास को ठेस न पहुँचे। इसी प्रकार अन्य कुशल और
निपूर्ण आदिवासियों को उनके ज्ञान और कला के अनुरूप प्रोत्साहन दिया जाय तो हम
देखेंगे उनकी समस्याएँ खुद-ब-खुद अपना निवारण ढूंढ लेंगी। आदिवासी भाषाएँ जो ज्ञान
से भरपुर हैं और जिनसे समाज को लाभ हो सकता है, उन्हें
साहित्य का दर्जा देकर उनके विलुप्ति को रोका जा सकता है। इससे आदिवासियों कि लोक
संस्कृति और परंपरा को संरक्षण और विकासीय मार्ग भी मिल सकेगा। यदि इसी प्रकार
सरकार और मीडिया आदिवासीय समाज और समुदाय को समझने का प्रयास करेंगी तो आदिवासीय क्षेत्रों
में व्याप्त समस्याएँ भी धीरे-धीरे समाप्त हो जाएंगी । अर्थात सरकार को आदिवासियों
के संबंध में धारणीय विकास कि दृष्टि से सोचना होगा ।
[1]शोधार्थी,
मानवविज्ञान विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी
विश्वविद्यालय, वर्धा ,दूरभाष नं-
9807119455,
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