धोबिया
लोक कला में सार्वभौमिकरण, आधुनिकीकरण और जनजाती-जाति-सांतत्य के लक्षणों का मानवशास्त्रीय अन्वेषण
प्रस्तावना-
कला का क्षेत्र बहुत व्यापक है और इसमें
लोगों के मत भी भिन्न-भिन्न हैं। ‘कला’ संस्कृत भाषा की ‘कल’ धातु से
बनी है जिसका तात्पर्य सुंदरता, मंत्रमुग्धकारक, प्रसन्न करने वाली इत्यादि है। अर्थात जो मन या चित्त को प्रसन्न करे वही
कला है[1]। कला
की अभिव्यक्ति कैसे और क्यों होती है? यह भी एक मनोवैज्ञानिक
पहलू है। “अभिव्यक्ति मानसिक अनुभूतियों के कारण उत्पन्न होने वाले भावों द्वारा
साकार हो उठती है। ये भाव जब बाह्य जगत के रूप संस्कार को देखकर उत्पन्न होते हैं
और अपनी प्रतिभा के कारण जब वे साकार रूप में प्रकट हो जाते हैं, तब ‘कला’ या ‘अभिव्यक्ति’ का रूप ही सम्मुख उपस्थित हो जाता है”
(तिवारी, भोलानाथ.2003)। कला या अभिव्यक्ति अनेक प्रयोजनों
द्वारा प्रकट होती है जिसका उद्देश्य मानव मन को सम्मोहित करना होता है। कला में
एक प्रमुख बात यह भी होता है कि कला को प्रस्तुत या बनाने वाला जिसे कलाकार कहते
हैं, उस विशिष्ट कार्य में दक्ष एवं निपूर्ण होता है। उसकी
दक्षता और प्रतिभा ही कला का द्योतक होता है और कला व कलाकार की वास्तविक पहचान
एवं परिभाषा होती है।
कला की गणना अथवा प्रकार के संबंध में
भी बड़े मतभेद हैं। जैसे- ‘कामसूत्र’ में 64 प्रकार की कलाओं का वर्णन मिलता है, जैन ग्रन्थों
में 72 कलाओं का वर्णन है। प्रसिद्ध कश्मीरी पंडित ने तो अपनी पुस्तक “कला विकास”
में कलाओं के सबसे अधिक प्रकार बताए हैं। इन्होंने 64 जन उपयोगी कलाओं, 64 सुनारों द्वारा सोना बनाने की कलाएं, वेश्यावृति
से संबंधित 64 कलाएं, 10 भेषज कलाएं,
कायस्थों द्वारा प्रयोग 10 कलाओं इत्यादि का वर्णन मिलाता है। परंतु सम्पूर्ण कला
वस्तुतः दो भागों में विभक्त हो सकती है।
1- उपयोगी
कला
2- ललित
कला
ललित कला से तात्पर्य है– वे कलाएं
जिनकी सुंदरता, मौलिकता, सजीवता से
दर्शक या श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाता है। जैसे- वस्तु कला,
मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत कला एवं
काव्यकला इत्यादि।
उपयोगी
कला से तात्पर्य जन साधारण के उपयोग में प्रयुक्त होने वाली कलाएं। खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, रहने-बैठने, आन-जाने, कमाने-खाने इत्यादि की सुविधाओं के लिए
जिन आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है, वे ही उपयोगी कला होती
हैं।
प्रस्तुत शोध पत्र का संबंध भी इन्हीं
उपयोगी कलाओं से है जो विभिन्न रूपों और प्रकारों से जन साधारण द्वारा अभिव्यक्त
किया जाता है एवं समाज में जनजागरण, जनसंचार व अभिज्ञान
को फैलाता आ रहा है। इन्हीं कलाओं में ‘लोक कला’ भी प्रमुख स्थान रखता है। लोक कला पर विचार करने से पहले यह भी जानना
आवश्यक है कि ‘लोक’ क्या है?
‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘जनपद’ या ‘ग्राम्य’ नहीं है बल्कि गाँवों एवं कस्बों में फैली
हुई वो समस्त जनता है, जिसके व्यवहार-ज्ञान का आधार पोथियाँ
नहीं है, ये लोग नगर में परिष्कृत रूप सम्पन्न तथा सुसंस्कृत
समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल तथा अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं
तथा परिष्कृत रुचि वाले लोगों कि समूची विलासिता एवं सुकुमारता को जीवित रखने के
लिए जो भी वस्तुएँ आवश्यक होती है, उन्हें उत्पन्न करते हैं।[2] लोक
का सीधा संबंध उस जन साधारण लोगों से है जो सरल और साधारण जीवन बिताते चले आ रहे
हैं। इन्हीं लोगों (जाति एवं जनजाति) द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी
चली आ रही पारंपरिक कलाओं को ही ‘लोक कला’ कि संज्ञा दी जाती है। लोक कला जनगण के उस स्तर की काव्यात्मक, संगीतात्मक और चित्रात्मक गतिविधियाँ हैं, जो
अशिक्षित है और जिसका शहरीकरण व औद्योगीकरण नहीं हुआ है। लोक कला में उत्पादक और
उपभोक्ता को अलग कर पाना मुश्किल कार्य होता है एवं उनके बीच सीमा रेखा हमेंशा तरल
रहती है।[3]
लोक कला का संबंध देशज संस्कृति के
लोगों से होता है जो समान्यतः गाँवों एवं कस्बों में साधारण जीवन बिताते हैं। जीवन
निर्वाह करते समय अपने सामान्य जीवन की आप-बीती,
कठिनाइयों, विश्वासों, प्रथाओं, संस्कृति तथा क्रिया-कलापों को अपने मनोरंजन एवं अपनी पहचान के रूप में
याद करते हैं। इन्हीं यादों को विभिन्न क्रियाओं एवं प्रतिक्रियाओं के माध्यम से
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में परंपरा के रूप में बताते तथा सीखते हैं। जन साधारण
द्वारा पारंपरिक कला के रूप में मनाये जाने वाले समस्त मानव व्यवहारों को ही लोक
कला कहा जाता है। यह लोक कला उस जन समुदाय के अभिज्ञान (पहचान), सांस्कृतिक प्रतिरूप तथा मनोरंजन का माध्यम होता है।
भारतीय दृष्टिकोण से लोक कला की अपनी
पहचान और विविधता देखने को मिलती है। समाज के वे लोग जो सामान्य जीवन का निर्वाह
करते है तथा अपने मनोभावों को अपनी पहचान के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित भी
करते हैं। इसी को हम लोक कला का दर्जा देते हैं। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण कला
का नाम आता है जो विशेषीकृत है, जिसे हम ‘आदिवासी कला’ के नाम से जानते हैं। परंतु यह जान
लेना अतिआवश्यक है कि ‘लोक कला’ तथा ‘आदिवासी कला’ में पर्याप्त भिन्नता और विविधता होती
है। आदिवासी कला का संबंध उस समुदाय से होता है जो किसी निश्चित भू-भाग में रहता
है, एक विशेष भाषा बोलता है तथा जिसका समाज समतावादी है।
अर्थात वह कला जो आदिवासियों द्वारा निर्मित या प्रदर्शित किया जाता है, उसे आदिवासी कला कि संज्ञा देते हैं।
इसके साथ यह एक कटु सत्य रहा है कि आदिवासियों के लिए कभी भी ‘लोक’ या ‘लोक कला’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था, बल्कि लोक व लोक
कला शब्द का प्रयोग एक ऐसे जन समूह के लिए शुरू होता है जो समान्यतः गाँव व कस्बों
में रहते हुए आदिवासियों से भिन्न जीवन बिताता रहा है। कहने का अर्थ यह है कि आदिवासियों
को ‘लोक’ शब्द से दूर रखा गया था और
रखा जाता भी रहा है। उन्हें संवैधानिक नाम ‘जनजाति’ से ही पूरे देश में जाना जाता है। इसी कारण इनके द्वारा प्रदर्शित कलाओं
को ‘जनजातीय कला’ कहा जाता है।
जहाँ तक इस शोध पत्र कि बात है इसमें पूर्वाञ्चल
(उत्तर-प्रदेश) कि एक प्रमुख लोक कला “धोबिया लोक कला” का विश्लेषणात्मक अध्ययन
किया गया है। धोबिया लोक कला एक प्रकार की जातिगत लोक कला है क्योंकि यह एक विशेष
जाति ‘धोबी’ से संबंधित है। धोबी जाति के लोग लगभग पूरे
देश में मिलते हैं और उनके नामों में भिन्नता भी देखने को मिलती है। धोबी जाति
समान्यतः कपड़े धोने का कार्य करती थी, इस कारणवश इसे ‘धोबी’ अथवा ‘धोने वाला’ नाम मिला। अपने सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था एवं अपने जीवन की
कठिनाईयों को गीत, संगीत, नृत्य, कथा, विश्वास, मिथकों एवं
मुहावरों-लोकोक्तियों के माध्यम से समाज के सामने प्रदर्शित करते थे। इनका यह
व्यवहार कला के रूप में धीरे-धीरे उस जाति विशेष की पहचान बन गयी और उनकी कला ‘लोक कला’ में परिवर्तित हो गई। वर्तमान समय में
धोबिया लोक कला में विभिन्न प्रकार देखने को मिलते हैं। जैसे- धोबिया गीत, धोबिया संगीत, धोबिया नृत्य,
धोबिया कथा, धोबिया विश्वास, धोबिया
वाद्य-यंत्र, धोबिया वस्त्र, धोबिया
गहने एवं मिथक इत्यादि।
धोबिया लोक कला की उत्पत्ति एवं रूपों
का अध्ययन करने से पता चलता है कि धोबिया लोक कला विभिन्न रूपों में आदिवासी कला के
साथ समानता प्रदर्शित करता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि धोबिया लोक कला तथा
आदिवासी कला में समानता और विभिन्नता किस प्रकार की है? क्योंकि धोबिया लोक कला के विभिन्न रूपों में आदिवासी कला के समान रूप
देखने को मिलते हैं। अब हमारे सामने प्रश्न यह उठता है कि धोबिया लोक कला तथा
आदिवासी कला में समानता क्यों है व किन-किन रूपों में है?
दूसरा प्रश्न यह भी है कि इस लोक कला का सार्वभौमिकरण किस प्रकार हुआ है? चूँकि जब कोई कला किसी दूसरे समाज या समुदाय द्वारा अपनाया जाता है तो
उसमें पारिस्थितिकी व समय के अनुरूप परिवर्तन भी होता है। यह भी जानने का प्रयास
किया गया है कि वर्तमान समय में इस लोक कला पर आधुनिकता का क्या प्रभाव पड़ा है?
धोबिया
लोक कला की विवेचना-
धोबिया लोक कला के विभिन्न रूपों का
विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है जिसमें आदिवासी कला से समानता और भिन्नता
को विशेष ध्यान दिया गया है। लोक कलाकार तरह-तरह के गीतों
एवं गाथाओं को तैयार करके लोगों का मनोरंजन करते हैं तथा अपनी संस्कृति के संबंध
में जानकारी प्रदान कराते हैं। लोक कलाकार विशेष अवसरों पर जैसे- पर्व-त्यौहार, शादी-विवाह, जन्म-मृत्यु इत्यादि पर विशेष प्रकार
की नाटक-नौटंकी करके भी लोगों का मनोरंजन करते हैं। लोक कलाओं के माध्यम से एक
पूरे जन समुदाय की अभिज्ञानता[4], निरंतरता एवं सांस्कृतिक परिवर्तन को समझने में सहायता मिलती है। यह लोक
कला अति प्राचीन लोक कला है क्योंकि इसकी उत्पत्ति तब से मानी जाती है जब से धोबी
जाति का उद्भव हुआ है। प्रारम्भ में इनके मनोरंजन के साधन सीमित और सरल थे। इस
जाति के लोगों का आदिवासी वर्ग तथा अपने से उच्च वर्ग के लोगों (पिछड़ी जाति एवं
सामान्य वर्ग) से संबंध होता रहा है। क्योंकि उच्च वर्ग के लोगों के कपड़ों को धोने
के कारण भी इनको समाज में सम्मान मिलता रहा है। इसी प्रकार धोबी जाति आदिवासी
वर्गों से भी लगातार संपर्क में रहते थे, जिससे उन्हें
आदिवासियों की संस्कृति को पास से देखने का मौका मिला था। जिसका परिणाम यह हुआ कि
धोबी जाति के लोगों को अपना खाली समय और दिन भर के थकान व मनोभावों को आदिवासियों
कि तरह कला के रूप में प्रस्तुत करने का रास्ता सुझा होगा, क्योंकि
कोई भी व्यक्ति अपने दिन-भर की परेशानियों एवं थकानों इत्यादि को सायंकाल के खाली
समय में अपने पास-पड़ोसियों के साथ बांटना चाहता था। इस प्रकार इनका यह प्रदर्शन
धीरे-धीरे लोक कला का रूप लेता चला गया चूँकि यह समुदाय आदिवासी नहीं था और न ही
आदिवासी के कोई गुण थे। इसलिए समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने इन समूहों के लिए ‘लोक’ तथा इनकी कला को ‘लोक कला’ से सुशोभित किया। प्राचीन काल में इस कला को मनोरंजन और अपनी पहचान के
रूप में सम्मान मिला जिसमें प्रास्थिति और भूमिका का प्रमुख स्थान था। परंतु धीरे-धीरे
इस कला में भी परिवर्तन हुआ जिसमें व्यवसायीकरण ने प्रमुख भूमिका निभाई।
अतः धोबिया लोक कला कि विवेचना तथा
विश्लेषण करना अतिआवश्यक हो जाता है, जिसमें
आदिवासी कला तथा आधुनिकता प्रमुख आधार है। आदिवासियों में व्याप्त विभिन्न अभिनय
कलाओं के माध्यम से धोबिया लोक कला के रूपों का विश्लेषणात्मक विवेचना प्रस्तुत किया
जा रहा है, जो निम्नलिखित है-
(1)
धोबिया लोक गीत
लोक गीत लोक साहित्य[5] का
प्रमुख अंग है। सामूहिक जीवन के अवचेतन मन की अभिव्यक्ति जिसके माध्यम से की जाती
है उसे लोक गीत कहते हैं।[6] जन
सामान्य के हर्ष-विषाद, उमंग-उत्साह, हास-परिहास, आशा-निराशा,
सपनों और आकांक्षाओं को लोक गीतों के माध्यम से सुना जा सकता है। सहानुभूति के
स्तर पर इनका पूर्णरूपेण अनुभव किया जा सकता है। लोक गीतों का अस्तित्व तब तक
जीवित रहेगा जब तक मानव का अस्तित्व विद्यमान है। (परमार,
श्याम. 2003)
धोबिया
लोक गीत इन्हीं परम्पराओं पर आधारित एक शैली है जो धोबी जाति के मनोभावों को
अभिव्यक्त करती है। जिस प्रकार आदिवासी गीत आदिवासीय समाज के विभिन्न पक्षों को
लेकर गाये जाते हैं, ठीक उसी प्रकार धोबिया गीत भी
निम्नलिखित पक्षों पर तैयार किए जाते हैं और गाये जाते हैं। जैसे- पर्व-त्यौहार के
गीत, अतिथि सत्कार के गीत, कपड़े धोते समय
के गीत, समूह गीत, भूत-प्रेत संबंधी
गीत, पति-पत्नी संबंधी गीत,
प्रेमी-प्रेमिका गीत, हँसी-मज़ाक के गीत, पशु संबंधी गीत, श्रमिकों के गीत, मौसम संबंधी गीत, जीवन की विभिन्न अवस्थाओं संबंधी
गीत, नाटक-नौटंकी गीत इत्यादि।
धोबिया गीतों के प्रकार में समय के साथ
परिवर्तन भी देखने को मिलता है। जिस प्रकार आदिवासीय गीत मुख्यतः पुजा-पाठ, संस्कार, जादू-टोना,
भूत-प्रेत, हास-परिहास, खेल-कूद, मनोरंजन तथा जीवन की विभिन्नता पर आधारित होते हैं। ठीक उसी प्रकार
धोबिया गीत भी निर्मित होते हैं। अंतर सिर्फ इतना होता है कि निर्माता तथा गाने की
शैली पर समय के साथ विभिन्न परिवर्तनकारी कारकों का प्रभाव पड़ता रहा है। जैसे- आधुनिकता
तथा व्यवसायीकरण के कारण गीतों के धुनों, संरचना, शैली आदि पर फिल्मी गीतों का प्रभाव।
(2) धोबिया नृत्य
नृत्य की परंपरा आदिम युग से चली आ
रही है। जब से आदिमानव ने अपने भावों को अंग-संचालन द्वारा प्रकट करने का प्रयास
किया, तभी से नृत्य कला का सूत्रपात हुआ। भाषा के विकास से पूर्व आदिम मानव ने
अपने भावों को व्यक्त करने के लिए सांकेतिक भाषा का उपयोग करता था। तब से नृत्य
शैली का प्रादुर्भाव माना जाता है। वर्तमान में यह सुसज्जित और जटिल हो गया है। इसी
क्रम में धोबिया लोक नृत्य को को भी रखा जा सकता है, जिसे
स्थानीय बोली में धोबिया नाच कहा जाता है। धोबिया कलाकार विशेष रूप से समाज में
विशेष स्थान प्राप्त करता है, जो विभिन्न गीतों के आधार पर
प्रतिक्रिया तथा अंग संचालन करके मनोरंजन करता है। यह आम तौर पर हास्यप्रद होता है
परंतु कभी-कभी समाज के अति सूक्ष्मग्राही पक्षों पर भी अपने नृत्यों के माध्यम से
समाज के सामने रखते हैं।
जहाँ तक आदिवासी नृत्य की बात है, इसमें भी नर्तकियाँ और नर्तक मोहक वेश-भूषा से सज्जा करके नृत्य करते
हैं। चेहरे पर विभिन्न प्रकार के सौंदर्ययुक्त पदार्थों का सेवन करते हैं। ठीक उसी
प्रकार धोबिया लोक कलाकार (नर्तक/नर्तकियाँ) भी अपने शरीर को सौंदर्ययुक्त
पदार्थों से सजाते हैं और विभिन्न प्रकार के वस्त्रों को धारण करके नृत्य करते है।
आधुनिकता के इस युग में बाजार में उपलब्ध विभिन्न सौंदर्ययुक्त पदार्थों को
कलाकारों द्वारा खूब पसंद किया जाता है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि कलाकार
जीतने आकर्षक होंगे, लोगों में देखने की रुचि उतना ही अधिक
रहती है।
(3)
धोबिया वाद्य-यंत्र
किसी भी कला की रोचकता तभी बनी रहती
है जब उसमें लोक वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता है। वाद्य यंत्र अर्थात बजने वाली
वस्तुएं जिनसे निकलने वाली ध्वनि दर्शकों को लुभाती है। धोबिया लोक कला के
प्रदर्शन में लोक वाद्य-यंत्रों का प्रमुख स्थान होता है। इन वाद्य-यंत्रों की
प्रमुख विशेषता यह है कि सभी वाद्य-यंत्र देशज लोगों द्वारा तैयार किया जाता है।
कलाकारों द्वारा प्रयोग किये जाने वाले वाद्य-यंत्रों का अपना एक सामाजिक महत्व होता
है और उनके संबंध में कोई न कोई मिथक अथवा सामान्य कहानियाँ होती हैं जैसा आदिवासी
वाद्य-यंत्रों में भी देखने को मिलता है। धोबिया वाद्य-यंत्रों में प्रमुख मृदंग
(ढोलक), कसावर (पीतल का बर्तन तथा लकड़ी), छड़
(लोहे का बना), हरमुनिया,
तुरही इत्यादि है। आधुनिकता के कारण अब बांसुरी एवं
इलेक्ट्रिक वाद्य-यंत्र भी प्रयोग किए जा रहे हैं।
(4)
धोबिया वस्त्र एवं आभूषण
धोबिया लोक कलाकार इस कला को
प्रदर्शित करने से पहले अपने शरीर को विभिन्न देशज वस्त्रों तथा आभूषणों से सजाते
हैं। जो विशाल जन समुह (देखने वाले) के आकर्षण का केंद्र होता है। विशेष प्रकार के
वस्त्रों में कुर्ती तथा घाघरा होता है जिसे लोक कलाकारों द्वारा स्वयं तैयार किया
जाता है। घाघरे में चमकीले वस्तुओं का प्रयोग होता है। कुर्ती पर अनेकों रंग के छोटे-छोटे
चकत्ते लगाए जाते हैं। घाघरा सामान्यतः लाल रंग का होता है जिससे वह दर्शकों की
नजरों से दूर नहीं हो पता। इसके साथ ही साथ कमर में छोटी-छोटी घंटियों की
माला भी पहनते हैं। आभूषण के रूप पीतल तथा देखावटी हार, कंगन, नथुनी, कान-बालि, पायल, अँगूठी इत्यादि को धारण करते हैं।
(5)
लोक मिथक तथा लोक कथाएँ
जनजातीय मिथक तथा कथाएँ देवी-देवताओं, उत्पत्ति, भूत-प्रेत,
राजा-रानी, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदी-पहाड़, पृथ्वी-समुद्र,
गोत्र, टोटम, वंश, परिवार एवं समाज के नायक-नायिका इत्यादि से संबंधित होता है। जो कहानियों
तथा विश्वासों के रूप में आगे बढ़ती जाती है। ठीक उसी प्रकार धोबिया मिथक, कथाएँ एवं विश्वास भी कहानियों, गीतों व कविताओं के
माध्यम से समाज में व्याप्त हैं। जैसे- धोबी जाति के उत्पत्ति से संबंधित मिथक, व्यवसाय से संबंधित मिथक, पशुओं (विशेष रूप से गधा), नदियों, तालाबों इत्यादि से संबंधित मिथक इसके
अलावा लोक नायकों (बलदेव धोबी, गिरधारी धोबी इत्यादि) से
संबंधित मिथक एवं कहानियाँ भी प्रचलित है जिसे गीतों के माध्यम से प्रस्तुत करते
हैं। जो लोक कथाओं एवं गाथाओं के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित
होती रहती है। जैसे-
1)
सिंधु घाटी सभ्यता के वारिस के रूप में धोबी जाति का मिथक।[7]
2)
धोबी जाति का कोरवा जनजाति (छ.ग.) से संबंधित मिथक का प्रचलन।[8]
इस प्रकार देखा जा सकता है कि धोबिया
लोक कला के विभिन्न रूप हैं। यह लोक कला आदिवासी कला के विभिन्न रूपों से समानता
रखता है तथा जन साधारण के समक्ष अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति अपनी पहचान के रूप
में करता है। इसका अपना इतिहास है जो धोबी जाति की पहचान व संस्कृति का द्योतक है।
परंतु आधुनिकता के दौर में जैसे सभी संस्कृतियाँ प्रभावित हुई हैं वैसे ही यह लोक
कला भी परिवर्तित होती चली आ रही है। धोबिया लोक कला अब किसी जाति विशेष की कला
नहीं रही बल्कि यह विभिन्न जाति के लोगों द्वारा भी प्रदर्शित किया जा रहा है। जिसके
कारण यह लोक कला जातिगत लोक कला की विशेषता से अलग हो गयी है। इसका प्रमुख कारण
व्यवसायीकरण है, जिसे विभिन्न लोगों (जातियों जैसे- SC, OBC, GEN.) ने लाभ कमाने के
लिए उसके पारंपरिक रूपों में आधुनिक परिवर्तन करके अपना बना लिया है और उसे
अत्यधिक मोहक एवं आकर्षक बनाकर प्रदर्शित कर रहे हैं।
मैक्किम मैरिएट के अनुसार “जब लघु परंपरा के
तत्व जैसे- संस्कार, पूजा-पाठ, कलाएं, प्रथाएँ आदि ऊपर की ओर बढ़ते हैं अर्थात
फैलाव विस्तृत होता जाता है और जब यह बृहत परंपरा के स्तर तक पहुँच जाता है साथ
में उनके मूल स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है तो इस प्रक्रिया को सार्वभौमिकरण
कहते हैं। इसी प्रक्रिया के अंतर्गत लघु समूह या समूह के कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक
तत्व महान परंपरा के सांस्कृतिक तत्वों के साथ मिलकर उसके अभिन्न अंग बन जाते
हैं।
धोबिया लोक कला धोबी जाति की पारंपरिक
लोक कला है। परंतु धोबिया लोक कला के विभिन्न रूपों (जैसे- गीत, संगीत, नृत्य, वस्त्र, वाद्य-यंत्र, विश्वास, मिथक, कथाएँ इत्यादि) में आदिवासी कला के विभिन्न रूपों के बीच समानता देखा जा
सकता है। जैसे- गीतों के निर्माण में, नृत्य के प्रारूपों
में, वाद्य यंत्रों के प्रयोग में,
वस्त्रों के प्रयोग में एवं लोक साहित्यों के रूप में इत्यादि। (चित्रानुसार)
आदिवासी कलाएं जैसे-
गीत, नृत्य, वाद्य-यंत्र, वस्त्र, विश्वास, मिथक, कथाएं, लोकोत्तियां, मुहावरे, साहित्य इत्यादि का संबंध आदिवासी समूह से होता है,
जो एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में रहता है तथा उनका समाज समतावादी होता है। आदिवासी
कलाओं में सरलता का स्वरूप प्रदर्शित होता है। अपनी संस्कृति, परम्पराओं, विश्वासों,
मूल्यों, समस्याओं, आवश्यकताओं तथा
प्रकार्यों को कला के रूपों में प्रदर्शित करते रहे हैं। जिसका प्रमुख उद्देश्य अपनी
पहचान बनाए रखना तथा मनोरंजन करना था। धीरे-धीरे बाह्य समाज ने इनकी संस्कृति को
जानने के लिए इनके जीवन में हस्तक्षेप किया और इनके सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के
कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को अपनाने लगे। आदिवासियों की कलाओं में सरता होने के कारण
बाह्य समाज के लोगों द्वारा अपनाने में मदद ली और जल्द ही अपना लिया। चूँकि जाति व्यवस्था
में जातिगत व्यवसाय का प्रमुख स्थान रहा है जिसने आदिवासी कला को सीखने में प्रमुख
भूमिका निभाई। दिन भर के थकान, चिंताओं, कठिनाइयों और मनोभावों को आदिवासियों के समान अभिव्यक्त करने का मौका
मिला। इसमें अंतर सिर्फ इतना रहा कि वह अभिव्यक्ति उनकी स्वयं की थी। आदिवासियों
द्वारा प्रदर्शित कला अब ग्रामीण तथा श्रमिक वर्ग के लोगों द्वारा अपनाया गया, लेकिन उसके स्वरूप को थोड़ा परिवर्तन करके। श्रमिक वर्ग के लोगों ने भी
अपने जीवन की समस्याओं, आवश्यकताओं,
प्रकार्यों, सुख-दुख इत्यादि मनोभावों को कला के माध्यम से प्रदर्शित
किया। जिससे यह लाभ हुआ कि उन्हें अपने जीवन की परेशानियों एवं थकान को बहलाने का
मौका मिला। इसके साथ ही साथ समाज के अन्य लोगों को अपने मनोभावों को समझने का मौका
मिला। यह व्यवहार (कला) धीरे-धीरे ग्रामीण तथा श्रमिक वर्ग कि पहचान बन गयी और
समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने इस व्यवहार को जो कला के रूप जाना जाता था उसे आदिवासी
कला से थोड़ा भिन्न पाया। इसलिए इसे एक अलग नाम लोक की “लोक कला” दिया। अब यह
जनजातीय समाज से जातीय समाज, जनजाति से जाति तथा आदिवासी कला
से लोक कला एवं आर्थिक कला का हिस्सा बन गया।
वर्तमान समय में धोबिया लोक कला
आधुनिकता एवं व्यवसायीकरण के कारण आर्थिक कला के रूप में भोजपुर क्षेत्र
(उत्तर-प्रदेश का पूर्वाञ्चल) में प्रचलन में है। अब यह लोक कला केवल धोबी जाति कि
नहीं रह गयी है। इसे अन्य जातियों जैसे- अनुसूचित जाति (चमार, पासी, खट्टिक) अन्य पिछड़ा वर्ग (बिंद, यादव, लोहार, पटेल), तथा सवर्ण जाति के लोगों द्वारा सीखा और प्रदर्शित किया जा रहा है। अर्थात
लघु कला के तत्व विभिन्न रूपों में उच्च (वृहत) कला के रूपों में ऊपर की ओर बढ़ रहे
हैं। कलाएं अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) से अनुसूचित जाति (धोबी जाति) और फिर पिछड़ी
जाति (यादब, बिंद जाति) एवं सवर्ण जातिओं द्वारा अपनाया जा
रहा है। जो सार्वभौमिकरण का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस प्रकार देखा जा
सकता है कि धोबिया लोक कला वर्तमान में व्यवसायिक कला के रूप में महान परंपरा का
अंग बन गया है।
जाति-जनजाति-सांतत्य
डॉ॰ मजूमदार(1958) का मानना है कि जनजाति-जाति
सातत्य के परिणाम स्वरूप प्रारम्भिक काल से ही जनजाति से जाति के रूप में शांत
परिवर्तन सम्पन्न होते रहे हैं। यह परिवर्तन अनेक कारणों से संभव हुए। वर्तमान में
अधिकांश निम्न या बहिर्गत जातियाँ पहले जनजातियाँ ही थी। समय-समय पर जाति तथा जनजाति
में परिवर्तन होता रहता है, जिसका परिणाम यह होता है कि
कुछ जातियाँ, जनजातियों के रूप में दिखती हैं, तो कुछ जनजातियाँ, जाति का लक्षण प्रदर्शित करती
हैं। इसी प्रकार धोबी जाति भी लोक कला के माध्यम से जनजातियों के समान लक्षण
प्रदर्शित कर रहे हैं, जो जाति-जनजाति-सांतत्य की अवधारणा को
सत्यापित करते हैं। धोबी जाति द्वारा जाति-जनजाति-सांतत्य को प्रदर्शित करने वाले
लक्षण निम्नलिखित हैं-
1. जिस
प्रकार आदिवासी का संबंध विशेष भौगोलिक क्षेत्र से होता है। ठीक उसी प्रकार धोबी
जाति का भी एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र जैसे- तलबों या नदियों से विशेष संबंध होता
है। इसका प्रमुख कारण यह माना जाता है कि इन्हें कपड़े धोने के लिए एक बहुत बड़े
जलाशय की आवश्यकता होती है, जो ग्रामीण क्षेत्र के पास
स्थित तालाबों या नदियों से पूर्ण होती है। धोबी जाति की लगभग सम्पूर्ण आर्थिक
स्थिति इसी कार्य पर निर्भर होने के कारण इनका विशेष भौगोलिक क्षेत्र से संबंध अति
घनिष्ठ होता है।
2. धोबियों
का समाज आदिवासियों की तरह ही समतावादी है, जिसमें किसी
प्रकार का सामाजिक स्तरीकरण देखने को नहीं मिलता है।
3. इनके
समाज में लोक कलाकारों को विशेष प्रास्थिति प्राप्त होती है जो उस प्रास्थिति के
अनुरूप विशेष भूमिका अदा करते हैं, जिस प्रकार
आदिवासी समाज के मुखिया का होता है।
4. धोबी
समाज में सभी लोगों का एक समान पेशा होना जरूरी नहीं है।
5. जाति की उत्पत्ति श्रम-विभाजन तथा व्यवसायिक
आधार पर होती है। धोबी जाति के व्यावसायिक उत्पत्ति से संबंध के साथ ही साथ धोबी
जाति की उत्पत्ति से संबन्धित मिथक भी मिलते हैं। जैसे- इनका संबंध कोरवा जनजाति
(छ. ग.) से माना जाता है, जो बाद में धोबी जाति में
परिवर्तित हो जाती है।[9]
निष्कर्ष-
आज जिसे ‘लोक कला’ कहा जाता है, वह
18वीं सदी से पहले अस्तित्व में नहीं थी बल्कि वह अपना अस्तित्व तलाश रही थी। लोक
कला की स्वतंत्रता, मूल्यवत्ता और प्रभविष्णुता का कितना भी
समर्थन क्यों न किया जाये, लेकिन एक अन्य सवाल अवश्य उत्पन्न
होता है।– क्या लोक कला का कोई अपना इतिहास है? अथवा यह कुछ
सामान्य तथ्यों से ही अपना बचाव करता रहेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत भूमि
अनेकों लोक कलाओं से परिपूर्ण रही है। परंतु ऐसी कोई भी लोक कला नहीं है, जो आधुनिकता के प्रभाव से बच सकी हो। आधुनिकता तथा पूंजीवाद ने धोबिया
लोक कला को भी नहीं छोड़ा है। व्यवसायीकरण ने धोबिया लोक कला की मूल कलाओं एवं कलाकारों
को समाप्त करने का काम किया है, जिससे इनके अस्तित्व का खतरा
बढ़ा है। इस लोक कला का ऐसा कोई भी पक्ष नहीं है जहाँ आधुनिकता ने अपने पैर नहीं
रखे हैं।
क्या यह कहा जा सकता है कि अब लोक
कलाएं नहीं रह गई हैं? क्योंकि ‘लोक’ कहे जाने योग्य कोई वस्तु बची ही नहीं। दरअसल
पश्चिमी एवं विशेषकर एंग्लो-सैक्सन देशों के लिए यह सही बात है, क्योंकि इन देशों में न केवल औद्योगिक नगरों के जन समूह बल्कि खेती में
लगे हुए लोगों में भी उन लोगों के समान कुछ दिखाई नहीं देता जिन्होंने पहले लोक
कला को जीवित रखा था।
सुझाव-
हीगेल के साथ-साथ डॉ. श्याम सुंदर दास
ने भी किसी कला कि श्रेष्ठता का आधार सामग्री की मूर्तता या अमूर्तता माना है।
चाहे वह ललित कला हो या उपयोगी कला के रूप में ‘लोक
कला’। प्रत्येक लोक कला की श्रेष्ठता का आधार भी पृथक-पृथक
होता है। कोई भी लोक कला अपने विशिष्ट रूपों, प्रमाणों, भावों, लावण्यों, सादृश्यों
आदि गुणों के कारण विशिष्टता और श्रेष्ठता को प्राप्त करता है। लोक कला का विशेष
संबंध लोक कलाकारों से होता है। क्योंकि किसी भी लोक कला में एक कलाकार की
मनोभावनाओं समावेश होता है, जो उसकी अभिज्ञानता का द्योतक
होता है। यदि किसी लोक कला को वास्तव में संरक्षित तथा परिष्कृत करना है तो सबसे
पहले लोक कलाकारों के अस्तित्व को बचाना होगा। धोबिया लोक कला से संबंधित सुझाव
निम्नलिखित हैं-
1- लोक
कलाकारों के नवबोध, नवरुचि तथा नई शैलीगत
उद्भावना के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं है, जिससे वे आज भी
हजारों साल पुरानी प्रणाली के आधार पर लोक कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। इसके लिए
जरूरी है कि इन्हीं लोक कलाकारों को नवीन शैली में प्रशिक्षित किया जाय जिससे उन्हेंव
स्वयं की पहचान बनाने का मौका विश्व स्तर पर प्राप्त हो सके।
2- धोबिया
लोक कला के विभिन्न स्वरूपों को विश्व कि आधुनिक कलाओं के बराबर सम्मान मिले।
3- यहाँ
पर हमें केवल एक लोक कला के संबंध में नहीं अपितु सम्पूर्ण लोक संस्कृति (लोक
नाट्य, लोक नृत्य, लोक कला, लोक
विश्वास, लोक संगीत, लोक गीत इत्यादि)
के संदर्भ में सोचना होगा।
4- उत्तर-प्रदेश
के पूर्वाञ्चल क्षेत्र (जैसे- मिर्ज़ापुर, गाजीपुर, चंदौली, बलिया जिले इत्यादि) की विभिन्न लोक कलाओं
को संग्रहीत करके उसके समाप्त होने के कारणों का पता लगाना तथा प्रोत्साहित करना
होगा।
5- लोक
कलाकारों के भुखमरी तथा अस्तित्व को बचाना होगा। उनके द्वारा प्रदर्शित कलाओं को
प्रशिक्षित करके पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण का माध्यम बनाना होगा।
संदर्भ
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द्विवेदी, हजारी प्रसाद. “जनपद पत्रिका”. अंक -1 पृ. 65.
[1] वर्मा, महेंद्र. (2006). “भारतीय
चित्र कला की परंपरा”. दिल्ली: भारतीय कला प्रकाशन.
[2] द्विवेदी, हजारी प्रसाद.
जनपद पत्रिका. अंक -1 पृ. 65
[3] हाऊजर, अर्नाल्ड. (2008). “कला का इतिहास दर्शन”. दिल्ली: ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन.
[4]
“वह
व्यवस्थित पहचान जो अनुसरण पर आधारित हो,
जिसमें किसी व्यक्ति/समाज के प्रति स्थापित मनोभावों की समझ को मुख्य आधार माना
जाता है जो उसकी आंतरिक और बाह्य पहचान बनाती है”।
[5] लोक
साहित्य मौखिक परंपरा है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है। (बदरीनारायण, 2004.)
[6] त्रिपाठी, सूर्यकांत.
(2013). “लोक का अवलोकन”. दिल्ली: आर्य प्रकाशन.
[7] वियोगी, नवल. (2001). “भारत की आदिवासी नाग सभ्यता”. दिल्ली:
सम्यक प्रकाशन.
[8] वियोगी, नवल. (2001). “चमार जाति का गौरवशाली इतिहास”. दिल्ली: सम्यक प्रकाशन.
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