माफिया
संस्कृति के प्रतिरूप में नक्सलबाड़ी संस्कृति
सारांश-
नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का
अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। नक्सल
शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गाँव नक्सलबाड़ी से हुई है जहाँ भारतीय
कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने १९६७ मे सत्ता के
खिलाफ़ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की। इस शुरुआत में आदिवासियों के हित को
केंद्र में रखा गया । नक्सलबाड़ी आंदोलन धीरे-धीरे विस्तृत होता गया है जिसके साथ
ही साथ इसके नियमों में भी परिवर्तन होता गया है। जो एक नई संस्कृति का प्रतिरूप में
नजर आता है जिसे माफिया संस्कृति कह सकते है। अब रही बात माफिया संस्कृति कि तो यह
नक्सलबाड़ी संस्कृति से एकडैम भिन्न रही है। माफिया संस्कृति की शुरुआत ही लूट-खसोट
से हुई थी। इसमें निजीत्व की भवन रहती है जबकि नक्सल संस्कृति में सर्वहित की
भावना होती है।
प्रमुख
शब्द- माफिया संस्कृति, प्रतिरूप और नक्सलबाड़ी।
प्रस्तावना-
“हमारेपूर्वजों ने जिस समय हमारा घर
बनाया उस समय संयुक्त परिवार की परम्परा थी। सांझ ढलने के बाद सभी एक छत के नीचे
रहते थे और सुबह होते ही अपने खेत-खलिहानों की तरफ निकल पड़ते थे। लेकिन अब हमारे
पास रोजी-रोटी के साधन नहीं है। जल, जमीन, जंगल हमसे छीने जा रहे हैं और दो जून की
रोटी जुटा पाना मुश्किल होता जा रहा है। हमारी वन सम्पदा कारपोरेट घरानें लूट रही
हैं और मनमोहनी एकॉमोमिक्स के इस दौर में अमीरों और गरीबों की खाई दिन पर दिन चौड़ी
होती जा रही है”।शाइनिंग इंडिया के नाम पर विश्व मंच पर
भारत की बुलन्द आर्थिक विकास दर का हवाला देने वाले हमारे देश के नेताओं को शायद
उस तबके की हालत का अंदेशा नहीं है जिसकी हजारों एकड़ जमीनें इस देश में कारपोरेटी
घरानों द्वारा या तो छिनी गई हैं या छीनने की तैयारी में हैं।
दरअसल इस समूचे दौर में विकास नाम का
पंछी एक खास तबके के लोगों के पाले में गया हैं वहीं दूसरा तबका दिन प्रतिदिन गरीब
होता जा रहा है जिस दिशा में कारवाई तो होना दूर सरकारें चिन्तन तक नहीं कर पाई
है। फिर नक्सलवाद सरीखी पेट की लड़ाई को अगर सरकार अलग चश्मे से देखने की कोशिश
करे तो हमें समझना होगा कि उदारीकरण के बाद से किस तरह नक्सल प्रभावित क्षेत्रों
में सरकारों ने अपनी उदासीनता दिखलाई है जिसके चलते लोग बंदूक के जरिए उस सत्ता को
चुनौती दे रहे हैं, जिसके पैरोकार इस दौर में आम
आदमी के बजाय कारपोरेटों को हित साध रहे हैं।सत्ता में बैठे लोग नक्सलवादी लड़ाई
को अगर देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा बताते हैं तो समझना यह भी जरूरी
बन जाता है कि कौन से ऐसे कारण है, जिनके चलते बंदूक सत्ता
की नली के जरिए चैक एण्ड बैलेन्स का खेल खेलना चाहती है।
कार्ल मार्क्स के वर्ग सिद्धान्त के
रूप में नक्सलवाद नाम की व्यवस्था पश्चिम बंगाल के नक्लसबाड़ी में 1967 में
चारू मजूमदार, कानू सान्याल, जंगल संथाल के नेतृत्व में शुरू हुई। सामाजिक,
राजनीतिक, आर्थिक समानता स्थापित करने के उद्देश्य से इस तिकड़ी ने उस दौर में
बेरोजगार युवकों व किसानों को साथ लेकर गांव के भू-स्वामियों के खिलाफ अभियान
छेड़ दिया। इसके बाद चीन में कम्युनिस्ट राजनीति के प्रभाव से इस आंदोलन को व्यापक
बल मिला।
नक्सलबाड़ी
संस्कृति
प्रस्तुत शोध नक्सल और माफिया पर
केन्द्रित है जिसे एक संस्कृत के रूप में जानने की कोशिश की गयी है। क्योंकि मानव
के द्वारा किसी प्रकार के व्यवहारों को संस्कृति कहा जाता है जिसे मानव समाज का
सदस्य होने के नाते ग्रहण करता है। यदि देखा जाय तो नक्सल भी मानव के व्यवहार ही
हिस्सा है जिसे संस्कृति के रूप में समझा जा सकता है। मजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट
नेता माओत्से तुंग के बहुत बड़े प्रशंसकों में से थे और उनका मानना था कि भारतीय
मज़दूरों और किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं जिसकी वजह
से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और फलस्वरुप कृषितंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया
है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा
सकता है। १९६७ में "नक्सलवादियों" ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक
अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन विद्रोहियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ़ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई
छेड़ दी। १९७१ के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की
मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य और
विचारधारा से विचलित हो गया।वस्तुतः नक्सलवाद को ठीक से समझने के लिए इसके आरम्भ
और विकास का अध्ययन महत्वपूर्ण है।
नक्सलबाड़ी, पश्चिम बंगाल का एक गांव, जहां कानू सान्याल के
नेतृत्व में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (सीपीएम) के एक वर्ग ने 1967
में विद्रोह शुरू किया। 18 मई, 1967 को सिलीगुड़ी किसान सभा
एवं भूमिहीनों की सभा ने कानू सान्याल के सशस्त्र संघर्ष को समर्थन देने की घोषणा
की। कुछ दिनों के बाद ही नक्सलबाड़ी गांव में एक भूमि विवाद को लेकर लोगों ने
जमींदारों पर हमला किया। जब 24 मई को पुलिस दल किसान नेताओं को गिरफ्तार करने
पहुंचा, तो आदिवासियों के एक समूह ने उस पर हमला कर दिया,
जिसमें एक पुलिस निरीक्षक मारा गया। हालांकि, पुलिस
गोलीबारी में 9 वयस्कों एवं 2 बच्चों की भी मौत हुई। इस घटना ने आदिवासियों एवं
अन्य ग़रीब लोगों को आंदोलन में शामिल होने और स्थानीय जमींदारों पर हमले शुरू
करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस तरह देश में नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ एक सशस्त्र
आंदोलन, यानी नक्सलवाद। यही से नक्सल शुरू होता है और
धीरे-धीरे अपने वास्तविक पहचान को खो कर एक नई पहचान में विलीन हो जाता है।
वर्तमान समय में यही नक्सलबाड़ी जो एक आंदोलन के रूप में जाना जाता था अब वह कोई आन्दोलन
न रह कर माफिया या फिरौती या लुटेरा इत्यादि हो गया है। अब सवाल उठता है कि माफिया
क्या है?
माफिया
संस्कृति
माफिया
(Mafia)
इटली के सिसिली के अपराधी तत्व थे। इन्हें 'कोसा
नोस्त्रा' (Cosa Nostra) भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है
कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में में ये सिसिली में ये खूब फल-फूल रहे थे।
वस्तुत: यह अपराधी समूहों का शिथिल संघ होता है जिनमें समान सांगठनिक ढांचा एवं
समान 'आचार संहिता' होती है। प्रत्येक
समूह को 'परिवार', 'क्लान' या 'कोस्का' के नाम से जाना
जाता है और किसी एक क्षेत्र (जैसे एक कस्बा, शहर का कोई भाग,
या गाँव) में एक 'परिवार' की संप्रभुता रहती है जहाँ ये स्वच्छन्द होकर अपनी गतिविधियाँ चलाते हैं[1]। ठीक इसी प्रकार ब्रिटेन में
कई ऐसे गुट थे। जो इस तरह के क्रिया-कलाप में लिप्त थे। जैसे- जमायकन यारडीज: ये
नाम है उस दहशत का जिससे ब्रिटेन में रहने वाले लोग थर्राते हैं। इंग्लैंड में
ड्रग्स की सप्लाई हो या फिर हथियारों की तस्करी। इन अपराधों पर इस गिरोह की
बादशाहत जमाने से कायम है। ये गिरोह कॉन्ट्रेक्ट किलिंग के लिए भी बदनाम है। जमायकन
यारडीज के गुर्गे पैसे लेकर किसी को कहीं भी मौत के घाट उतार सकते हैं। इस गैंग के
सदस्यों के पास दुनिया के खतरनाक हथियारों का जखीरा है। ब्रिटेन में वैसे तो कानून
का राज कायम है। लेकिन अपराध की काली दुनिया में जमायकन यारडीज की सलतनत है। अगर
कोई दूसरा गिरोह इस धंधे में हाथ आजमाने की कोशिश करता है तो समझ लीजिए खूनी जंग
का ऐलान। यही वजह है ब्रिटेन में गैंगवार आम बात है[2]। यहां हर हफ्ते 70 से ज्यादा
गोलीबारी की घटनाएं गैंगवार की वजह से होती हैं।
ऐसा नहीं है कि भारत में ऐसा कोई गुट नहीं था। भारत में कई ऐसे राज्य है जो
माफियायों से परेशान है। बड़े-बड़े औद्योगपति एवं सरकारी कर्मचारी भी इन माफियायों
कि मार झेल रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि माफिया संस्कृति एक सशस्त्र बल
समूह है जो अपनी इच्छानुसार पैसों के लिए दूसरों को दबाने और मारने का काम करती
है। ध्यान देने वाली बात यह है कि यहाँ पैसा ही मूल्यवान होता है दूसरा डर। जबकि
नक्सल संस्कृति माफिया से एकदम अलग व्यवहार प्रस्तुत करता है। नक्सलबाड़ी में पैसा
महत्वपूर्ण नहीं होता है यहाँ लोगों कि भलाई और न्याय महत्वपूर्ण होता है।
प्रारम्भ में नक्सल भी इसी को अपनाता है है लेकिन धीरे धीरे इसके मूल्यों में
परिवर्तन के साथ इसमें पैसा और डर दोनों आ जाते हैं। जिसे अब हटा पाना किसी के बस
कि बात नहीं रह गयी है।
माफिया
संस्कृति vis-as-visनक्सलबाड़ी संस्कृति
आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से
स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गये हैं और संसदीय चुनावों में भाग भी लेते है। लेकिन
बहुत से संगठन अब भी छद्म लड़ाई में लगे हुए हैं। नक्सलवाद के विचारधारात्मक विचलन
की सबसे बड़ी मार आँध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को
झेलनी पड़ रही है।सरकारी आंकड़ों के मुतबिक़ अन्य वर्षों की तुलना में वर्ष 2012
में नक्सली वारदातों में काफी कमी आई, चाहे वो छत्तीसगढ़ हो,
झारखण्ड, ओडिशा, बिहार,
महाराष्ट्र या फिर आंध्र प्रदेश।केन्द्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट
को अगर आधार बनाए तो इस समय आन्ध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड,
बिहार, महाराष्ट्र समेत 14 राज्य इस हिंसा से बुरी तरह प्रभावित हैं। नक्सलवाद
के उदय का कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक असमानता और शोषण से जुड़ा है।
बेरोजगारी, क्षेत्रीयता, असन्तुलित विकास ये ऐसे कारण हैं जो नक्सली हिंसा को
बढ़ावा दे रहे हैं। नक्सलवादी राज्य का अंग होने के बाद भी राज्य से संघर्ष कर
रहे हैं क्योंकि इस दौर में उसके सरोकार हाशिए पर हैं और सत्ता और कारपोरेट का
काकटेल जल, जमीन, जंगल के लिए खतरा बन चुका है। इनका दूरगामी लक्ष्य सत्ता में
आमूल-चूल परिवर्तन लाना है इसी कारण सत्ता की कुर्सी संभालने वाले राजनीतिज्ञों और
नौकरशाहों को ये सत्ता के दलाल के रूप में चिन्हित करते हैं। नक्सलवाद बड़े पैमाने
पर फैलने का एक बड़ा कारण भूमि सुधार कानूनों का सही ढंग से लागू ना हो पाना भी है, जिस कारण अपने प्रभाव के इस्तेमाल द्वारा कई ऊंची रसूख वाले जमींदारों ने
गरीबों की जमीन पर कब्ज़ा कर लिया,जिसके एवज में उनके यहाँ
काम करने वाले मजदूरों का न्यूनतम मजदूरी देकर शोषण शुरू किया। इसी का फायदा नक्सलियों
ने उठाया और मासूम बेरोजगारों को रोजगार और न्याय दिलाने का झांसा देकर अपने
संगठन में शामिल करना शुरू कर दिया। यही से नक्सलवाद की असल में शुरूआत हो गई और
आज कमोवेश हर अशांत क्षेत्र में नक्सलियों के बड़े संगठन बन चुके हैं। आज आलम ये
है कि हमारा पुलिसिया तंत्र इनके आगे बेबस बना रहता है, इसी
के चलते कई राज्यों में नक्सली सरकार के समानान्तर खड़े हो पाने में सफल हुए
हैं।
देश की सबसे बड़ी नक्सल कार्यवाही 13
नवम्बर 2005 को घटी जहाँ जहाँनाबाद जिले में माओवादियों ने किले की तर्ज पर
घेराबंदी कर स्थानीय प्रशासन को कब्जे में लेलिया जिसमें तकरीबन 300 से ज्यादा
कैदी शामिल थे। ‘आपरेशन जेल ब्रेक’ नाम की इस घटना ने केंद्रऔर राज्य सरकारों के
सामने मुश्लिलें बढ़ा दी है। तब से लगातार नक्सली एक के बाद एक घटना कर राज्य
सरकारों की नाक में दम किए हैं। चाहे मामला बस्तर का हो या दंतेवाड़ा का, हर जगह एक जैसे
हालात हैं। आज तकरीबन देश के एक चौथाई जिले नक्सलियों के कब्जे में हैं। वर्तमान
में नक्सलवादी विचारधारा हिंसक रूप धारण कर चुकी है। सर्वाहारा शासन तंत्र की स्थापना हेतु ये हिंसक
साधनों के जरिए सत्ता परिवर्तन के जरिए अपने लक्ष्य प्राप्ति की चाह लिए हैं।
सरकारों की सेज सरीखी नीतियों ने भी
आग में घी डालने का काम किया है। सेज की आड़ में सभी कारपोरेट घराने अपने उद्योगों
की स्थापना के लिए जहाँ जमीनों की मांग कर रहे हैं वहीं सरकारों का नजरिया निवेश
को बढ़ावा है जिसके चलते औद्योगिक नीति को बढ़ावा दिया जा रहा है। कृषि योग्य
भूमि जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ है, उसे औद्योगिक
कंपनियों को विकास के नाम पर भेंटस्वरूप दिया जा रहा है जिससे किसानों की माली
हालत इस दौर में खराब हो चली है। यहाँ प्रश्न यह भी है कि ‘सेज’ को
देश के बंजर इलाकों में भी स्थापित किया जा सकता है, लेकिन
कम्पनियों पर मनमोहनी इकॉनोमिक्स ज्यादा दरियादिली दिखाता नजर आता है। जहाँ तक
किसानों के विस्थापन का सवाल है तो उसे बेदखल की हुई जमीन का विकल्प नहीं मिल
रहा। मुआवजें का आलम यह है कि सत्ता में बैठे हमारे मठाधीश का कोई करीबी रिश्तेदार
अथवा अथवा उसी जाति का कोई कृषक यदि मुआवजे की मांग कर रहा है तो उसे अधिक धन प्रदान
किया जा रहा है। नेताओं और मंत्रियों का यही फरमान और फार्मूला किसानों के बीच की
खाई को चौड़ा कर रहा है। सरकार से हारे हुए मासूमों की जमीन की बेदखली के बाद एक
फूटी कौड़ी भी नहीं बचती जिस कारण समाज में बढ़ती असमानता उन्हें नक्सलवाद के
गर्त में धकेल रही है। ‘सलवा जुडूम’ में आदिवासियों को हथियार देकर अपनी बिरादरी
के नक्सलियों के खिलाफ लड़ाया जा रहा है, जिस पर सुप्रीम
कोर्ट तक सवाल उठा चुका है[3]।
हाल के वर्षों में नक्सलवादियों ने
जगह-जगह अपनी पैठ बना ली है और आज हालत यह है कि बारूदी सुरंगबिछाने से लेकर ट्रेन की पटरियों को निशाना बनाने
में ये नक्सली पीछे नहीं हैं। हिंसा और अराजकता का वातावरण बनाने में जहाँ चीन
इनको हथियारों की सप्लाई कर रहा है वहीं हमारे देश के कुछ सफेदपोश लोग धन देकर
इन्हेहिंसक गतिविधियों के लिए उकसा रहे हैं। यह सब हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए
खतरे की घंटी है। केन्द्र सरकार के पास इससे निपटने हेतु इच्छा शक्ति का अभाव है
वहीं राज्य सरकार केन्द्र सरकार के जिम्मे इसे डालकर अपना उल्लू सीधा करती है।
असलियत ये है कि कानून व्यवस्था शुरू से राज्यों का विषय रहा है। पुलिसिया
तंत्र भी नक्सलियों के आगे बेबस नजर आता है। केंद्र और राज्य सरकारों में
सामंजस्य की कमी का सीधा फायदा ये नक्सली उठा रहे हैं। पुलिस थानों में हमला
बोलकर हथियार लूटकर वह जंगलों के माध्यम से एक राज्य की सीमा लांघकर दूसरे राज्य
की सीमा में चले जा रहे हैं। ऐसे में राज्य सरकारें एक दूसरे पर दोषारोपण कर अपने
कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। इसी आरोप प्रत्यारोप की उधेडबुन में हम आज तक
नक्सली हिंसा का समाधान नहीं कर पाये हैं। गृह मंत्रालय की ‘स्पेशल टास्क
फोर्स’ रामभरोसे हैं। इसे अमलीजामा कब पहनाया जाएगा कुछ कहा नहीं जा सकता।
पुलिस के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया भी एक ऐसी ही समस्या है। केन्द्र के द्वारा दी
जाने वाली मदद का सही इस्तेमाल कर पाने में अभी तक पुलिसिया तंत्र असफल साबित हुआ
है। भ्रष्टाचार रूपी भस्मासुर का घुन ऊपर से नीचे तक लगे रहने के कारण सकारात्मक
परिणाम सामने नहीं आ पा रहे हैं। साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों में आबादी के
अनुरूप पुलिस कर्मियों की तैनाती नहीं हो पा रही है। कांस्टेबल से लेकर अफसरों के
बहुत से पद जहाँ खाली पड़े हैं वहीं ऐसे नक्सल प्रभावित संवेदनशील क्षेत्रों में
कोई काम करने नहीं जाना चाहता।
नक्सल प्रभावित राज्यों पर केन्द्र
को सही ढंग से समाधान करने की दिशा में विचार करने की जरूरत है। क्योंकि इन
इलाकों में रोटी, कपडा, मकान जैसी बुनियादी समस्याओं का अभाव है, जिस कारण बेरोजगारी के अभाव में इन इलाकों में भुखमारी एक बड़ी समस्या
बनी हुई है।सरकार की असंतुलित विकास की नीति ने इन इलाके के लोगों को हिंसक साधनों
को पकडने के लिए मजबूर कर दिया। इस दिशा में सरकारों को गंभीरता से विचार करने की
जरूरत है अन्यथा आने वाले वर्षों में ये नक्सलवाद ‘सुरसा के मुंह’ की तरह हर
राज्य को निगल सकता है।
कुल मिलाकर आज की बदलती परिस्थितियों
में नक्सलवाद भयावह रूप लेता नजर आ रहा है। बुद्ध, गांधी की धरती के लोग आज
अहिंसा का मार्ग छोड़ हिंसा पर उतारू हो गए है। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने
वाले आज पूर्णत: विदेशी विचारधारा को अपना आदर्श बनाने लगे हैं। नक्सल प्रभावित
राज्यों में पुलिस कर्मियों की नृशंस हत्या हथियार लूटने की घटनाएं बताती हैं कि
नक्सली अब लक्ष्मण रेखा लांघ चुके हैं। नक्सल प्रभावित राज्यों में जनसंख्या
के अनुपात में पुलिस कर्मियों की संख्या कम है। पुलिस जहाँ संसाधनों का रोना रोती
है वही हमारे नेताओं में दृढ इच्छा शक्ति की कमी है। राज्य सरकारों के पास नक्सलवाद
से लड़ने की नीति तो है परन्तु सही नीयत नहीं। खुफिया विभाग की नाकामी भी इसके
पांव पसारने का एक बड़ा कारण है। कुछ वर्षो पहले एक प्रकाशित रिपोर्ट को अगर आधार
बनाए तो इन नक्सलवादियों को जंगलों में माइंस से करोडों की आमदानी होती है। कई
परियोजनाएं इनके दखल के चलते लंबित है। आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत
राजनैतिक पार्टी बन गए हैं और संसदीय चुनावों में भी भाग लेते हैं। लेकिन बहुत से
संगठन अब भी छद्म लड़ाई में लगे हुए है।
नक्सलवादियों
के वर्चस्व को जानने समझने का सबसे बेहतर उदाहरण झारखण्ड का छतरा और
छत्तीसगढ का बस्तर जिला है जहाँ बिना केन्द्रीय पुलिस कर्मियों की मदद के बिना
पुलिस का पत्ता तक नहीं हिलता। यह काफी चिंताजनक है कि नक्सल प्रभावित राज्यों
में आम नागरिक अपनी शिकायत तक दर्ज नहीं कराना चाहता क्योंकि वहां पुलिसिया तंत्र
में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार पसर चुका है। साथ ही पुलिस का एक आम आदमी के साथ
कैसा व्यवहार है इसे बताने की जरूरत नहीं है।
निष्कर्ष
अत: सरकारों को चाहिए वह नक्सल
प्रभावित इलाकों की वस्तुस्थिति खुद वहां जाकर देखे समझे और वहां बुनियादी
सुविधाएं दुरूस्त कर रोजगार का सृजन करे क्योंकि आर्थिक विषमता के चलते ही आज
लोग बंदूक उठाने को मजबूर हुए हैं। दरअसल ‘जन’ और ‘प्रतिनिधि’ के बीच खाई
चौड़ी होती जा रही है। इसलिए सरकार के लाभ जनता तक नहीं पहुंच पाते और जनता की
भावना सरकार समझती नहीं। नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्र का दायरा बढ़ रहा है और अब
इनके निशाने पर अत्यंत सुरक्षित माने जाने वाले लोग व जगहे हैं। वाम चरमपंथियों के
दबाव और लोकप्रियता, दोनों बढ़े हैं, यहां
तक कि उनके हिमायती भी। छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश जैसे नक्सल प्रभावित राज्यों से हटकर अब इनके लोग व विचार
पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे क्षेत्रों में आ गए हैं। कई
नामी-गिरामी शैक्षणिक संस्थानों में इनका प्रभाव बढ़ा है। क्योंकि आम जनता और
आदिवासियों के हित में कार्य करने और उनके
मुसीबत में साथ खड़े रहने वाली पार्टी अब निजी सुख सुविधाओं को इकट्ठा करने में लग
गयी है । अब इनके बंदूक के निशाने पर आम गरीब जनता और आदिवासी भी हो रहे है। जो भी
व्यक्ति इनके रास्ते आता है वो भी मौत के घाट उतरता है। इसलिए कह सकते हैं कि
नक्सल संस्कृति अब माफिया संस्कृति के नक्शे कदम पर चलने लगी है अथवा चलती हुई नजर
आ रही है।
संदर्भ
सूची-
1.
मुखर्जी, रवीन्द्र नाथ. (2006).
सामाजिक विचारधारा. दिल्ली: विवेक प्रकाशन.
2.
वियोगी, नवल. (2001). “भारत की आदिवासी नाग सभ्यता”. दिल्ली: सम्यक प्रकाशन.
3.
पाण्डेय, गया. (2007). “भारतीय जनजातीय संस्कृति”. नई दिल्ली: कांसेप्ट पब्लिशिंग कंपनी.
4.
उप्रेती, हरिश्चंद्र. (2000). “भारतीय जनजातियाँ: संरचना एवं
विकास”. जयपुर: राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी.
5.
https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AB%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BEdated 15/10/15
7.
नवभारत टाइमस दिल्ली दिनांक 21/05/2014
[1]https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%AB%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BEdated 15/10/15
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