मानव
प्रजातियाँ
प्रजाति
का तात्पर्य वर्तमान मेधावी मानव की जीव वैज्ञानिक विशेषताओं के आधार पर उसके उस
वर्गीकरण से हैं, जिसका प्रत्येक वर्ग
वंशानुक्रम के द्वारा शारीरिक लक्षणों में पर्याप्त समानता रखता हैं। किसी
प्रजातिय वर्ग जे सभी लोगों के बीच नस्ल या जन्मजात सम्बन्ध पाए जाते हैं और उनके
द्वारा पीड़ी-दर-पीड़ी उनका वहन किया जाता हैं। प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता क्रोबर के
अनुसार "प्रजाति एक प्रमाणिक प्राणिशास्त्रीय अवधारणा हैं। यह एक समूह है जो
वंशानुक्रमण, वश या प्रजातीय गुण अथवा उप-समुह के द्वारा
जुडा होता हैं। यह सामाजिक -सांस्क्रतिक अवधारणा नही हैं।"मानव प्रजाति का
वर्गीकरण मानव शरीर की आकृति एवं उसके शारीरिक लक्षणों के आधार पर किया जाता है।
विश्व में पांच वृहत् प्रजातीय समूह पाए जाते हैं, जो
निम्नलिखित हैं। हालांकि मानव प्रजाति वर्गीकरण को लेकर मतैक्य नहीं है-
काकेशायड्स-
(यूरोपीय,
सेमेटिक, इंडो-आर्य) वर्तमान विश्व में इस
प्रजाति की गणना एक वृहत प्रजाति के रूप में की जाती है। इसे तीन वर्गों में
विभाजित किया गया है- नार्डिक, अल्पाइन और भूमध्यसागरीय।
मंगोलायड्स-
(मुख्यतः
एशियाई) इस प्रजाति का निवास केवल एशिया महाद्वीप में है।
नीग्रोयड्स-
(मुख्यतः अफ्रीकी) कुछ लोग इसे विश्व की प्रथम प्रजाति के रूप में मान्यता देते
हैं।
ऑस्ट्रेलॉयड-यह
एक छोटा समूह है जो मुख्यतया ऑस्ट्रेलिया में पाया जाता है। इस प्रजाति के लोगों
की संख्या काफ़ी कम है।
हाटेनटॉट्स
अथवा बुशमैन-इस प्रजाति के लोग दक्षिणी-पश्चिम अफ्रीका के
कालाहारी मरुस्थल में निवास करते हैं। इनकी संख्या भी दुनिया में काफ़ी कम है।
प्रजाति
की उत्पत्ति तथा विकास के कारक
1.
जलवायुविय परिवर्तन
2.
ग्रन्थि रसों का प्रभाव
प्रजाति
निर्धारण के शारीरिक लक्षण
1.
त्वचा का रंग
2.
शरीर का कद
3.
मुखाक्रति
4.
बालो की बनावट
5.
सिर की बनावट अथवा कपाल
सूचकांक
6.
नाक की आक्रति तथा नासिका
सूचकांक
भारत
की जनसंख्या में कई प्रजातियों का सम्मिश्रण विद्यमान हैं। ये प्रजातियाँ
प्रागैतिहासिक काल से लेकर समय-समय पर देश में आयी एवं देश के उत्तर से दक्षिण की
ओर बसती गयी। भारतीय जनसंख्या में इतनी प्रजातीय भिन्नता मिलती है कि उसे स्पष्ट
नहीं किया जा सकता, फिर भी 1901 की जनगणना के समय सर हरबर्ट रिजले ने सर्वप्रथम भारतीय जनसंख्या में
प्रजातियों का विवरण प्रस्तुत किया। इनके द्वारा उल्लेखित प्रजातियों एवं उनके
क्षेत्रों में प्रमुख हैं।
द्रविडयन
-इसके भारत की आदि प्रजाति माना जाता है तथा इसका निवास
दक्षिण राज्यों - तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, छोटा नागपुर पठार तथा मध्य प्रदेश के दक्षिणी भागों में है। इसके
प्रतिनिधि हैं - पानियान (मालावार), जुआंग (उड़ीसा), कोंडा (पूर्वी घाट), कोंड (पूर्वी घाट), गोंड (मध्य प्रदेश), टोडा (नीलगिरि), भील एवं गरिसया (राजस्थान तथा गुजरात) तथा संथाल (छोटा नागपुर पठार)।
भारतीय
आर्य- इस प्रजाति के बारे में अनुमान है यह ईसा से
2,000 वर्ष पूर्व मध्य एशिया से भारत आयी, यद्यपि कि
अधिकांश विद्धान इसे भारत की मूल प्रजाति मानते हैं। इसका निवास पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा जम्मू कश्मीर राज्यों
में हैं।
मंगोलायड
-इस प्रजाति का निवास हिमाचल प्रदेश, नेपाल की समीपवर्ती क्षेत्र तथा असम राज्यों में हैं। इसके प्रतिनिधि है -
कनेत (कुल्लू), लेप्चा (सिक्किम तथा दार्जिलिंग), बोडू (असम) तथा भोटिया।
द्रविड़यन
- इस प्रजाति में आर्य एवं द्रविड़ प्रजातियों का मिश्रण
मिलता है। इसका निवास उत्तर प्रदेश, बिहार तथा
राजस्थान राज्यों के कुछ भागों में है।
मंगोल
द्रविड़यन- यह प्रजाति पश्चिम बंगाल तथा उड़ीसा में मिलती
है। यहां के बंगाली ब्राह्मण तथा कायस्थ इसके प्रतिनिधि हैं।
सिथो-द्रविड़यन
-यह प्रजाति सीथियन तथा द्रविड़ प्रजातियों का मिश्रण हैं, जो केरल, सौराष्ट्र, गुजरात,
कच्छ तथा मध्य प्रदेश के पहाड़ी भागों निवास करती है।
तुर्क-ईरानी
-यह प्रजाति अफ़ग़ानिस्तान तथा बलूचिस्तान में निवास करती
है।
प्रजाति
वर्गीकरण
रिजले का यह वर्गीकरण
ऐतिहासिक दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण है, जबकि
वर्तमान में इसकी मान्यता समाप्त हो गयी है। इनके बाद ग्यूफ्रिडा, हैडन, ईक्सटेंड, हटन आदि
विद्वानों ने भारतीयों प्रजातियों का वर्गीकरण प्रस्तुत किय। सन् 1931 की जनगणना रिपोर्ट पर आधारित डॉ. बी.एस. गुहा का प्रजाति-वर्गीकरण सबसे
प्रमुख एवं सर्वमान्य हैं, जिसका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित
है -
1-
नीग्रिटो -
नीग्रिटो प्रजाति के लोग मुख्यतः अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में पाये जाते हैं।
इसके अन्य प्रतिनिधि हैं - अंगामी नागा (मणिपुर तथा कछार पहाड़ी क्षेत्र), बांगड़ी, इरुला, कडार, पुलायन, मुथुवान तथा कन्नीकर (सुदूर दक्षिण)। इस
प्रजाति के लोग दक्षिण भारत में ट्रावरकोर-कोचीन, पूर्वीं
बिहार की राजमहल पहाड़ियाँ तथा उत्तरी-पूर्वी सीमान्त राज्यों में मिलते हैं।
2-
प्रोटो-आस्ट्रेलायड अथवा
पूर्व द्रविड़- प्रोटो-आस्ट्रेलायड अथवा पूर्व-द्रविड़
प्रजाति भारतीय जनजातियों में सम्मिश्रण हो गयी हैं। इसके तत्वों का वहन करने वाले
दक्षिण भारत में मिलते हैं। जिनमें चेंचू, मलायन,
कुरुम्बा, यरुबा, मुण्डा,
कोल, संथाल तथा भील आदि प्रमुख हैं। इसके तत्व
कुछ लोगों में ही स्पष्ट होते हैं।
3-
मंगोलायड - मंगोलायड
प्रजाति तीन उपवर्गो में मिलती हैं, जो इस
प्रकार हैं-
4-
पूर्व-मंगोलायड-
यह प्रजाति हिमालय पर्व की तलहटी में तथा असम एवं म्यान्मार सीमा क्षेत्रों में
पायी जाती है। नामा, मीरी, बोडो
इससे सम्बन्धित हैं।चौड़े सिर वाली प्रजाति के लोग लेप्चा जनजाति में मिलते है तथा
बांग्लादेश के चकमा इसी प्रजाति से सम्बन्धित हैं।
5-
तिब्बती-मंगोलायड प्रजातिके
लोग सिक्किम तथा भूटान में हैं।
6-
भूमध्य सागरीय अथवा द्रविड़
प्रजाति- देश में भूमध्यसागरीय अथवा द्रविड प्रजाति
के तीन उपविभाग विद्यमान हैं – (a) प्राचीन भूमध्यसागरीय,
जो दक्षिण भारत के तेलगू तथा तमिल ब्राह्मणों में मिलते हैं। (b)भूमध्यसागरीय, जो सिन्धु घाटी सभ्यता के जन्मदाता
माने जाते हैं तथा न में पंजाब, कश्मीर, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, कोचीन,
महाराष्ट्र तथा मालाबार में मिलते हैं।(c)पूर्वी
अथवा सैमिटिक प्रजाति के लोग पंजाब, राजस्थान तथा पश्चिमी
उत्तर प्रदेश में पाये जाते हैं। तुर्की अथवा अरब में उद्भुत इन लोगों ने सम्भवतः
नव पाषाण काल में भारत में प्रवेश किया था।
7-
नार्डिक अथवा इण्डो-आर्यन
प्रजाति- नार्डिक अथवा इण्डों आर्यन भारत में सबसे
अन्त में आने वाली प्रजाति है। वर्तमान में इनका निवास उत्तर भारत में पाया जाता
है। राजपूत, सिख आदि इसके प्रतिनिधि माने जाते
हैं।चौड़ सिर वाली प्रजाति - चौड़े सिर वाली प्रजाति यूरोप से भारत आयी मानी जाती
है। इसके तीन प्रमुख उपवर्ग हैं।
(a)एल्पोनॉइड,जो सौराष्ट्र (काठी) , गुजरात (बनिया) , पश्चिम बंगाल (कायस्थ), महाराष्ट्र, तमिलनाडु, बिहार, पूर्वी उत्तर
प्रदेश आदि में मिलती हैं।
(b)डिनारिक, जो भूमध्यसागरीय प्रजाति के साथ मिली
हुई पायी जाती है।
(c)आर्मेनाइड जिसके प्रतिनिधि हैं मुम्बई के पारसी लोग। पश्चिम बंगाल
के कायस्थ तथा श्रीलंका की वेद्दा प्रजाति भी इनसे ही सम्बन्धित मानी जाती है।
स्मरणीय
है कि भारत में प्रजातियों की इतनी विधिता विद्यमान है, किसी भी प्रजाति को स्पष्टरूपेण अलग नहीं किया जा सकता। यहाँ सभी
प्रजातियों के प्रतिनिधि तो मिल सकते हैं, लेकिन शुद्ध रूप
से नहीं। वर्तमान सभ्यता में प्रजातीय विचारधारा अपना महत्व खो चुकी है और इसलिए
भारत को ‘प्रजातियों का गलन-पात्र कहा जाता है। हम किसी
प्रजाति विशेष के प्रतिनिधि बाद में हैं, भारतीय पहले।
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