भारत भूमि प्राचीन काल से ही
अपनी सांस्कृतिक सम्पदा के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहाँ विभिन्न प्रकार की
संस्कृतियाँ, धार्मिक संस्थाएं,
वेश-भूषाएं, बोलियाँ तथा लोक कलाएँ इत्यादि अनेकों रूपों में
देखने को मिलती हैं। विभिन्न सांस्कृतिक प्रदेश में विभिन्न प्रकार की लोक
संस्कृतियाँ तथा लोक कलाएँ होती हैं। लोक कला का तो अपना ही स्थान होता है क्योंकि
ये लोक कलाएँ किसी विशिष्ट क्षेत्र तथा किसी विशिष्ट समुदाय से संबन्धित होती हैं।
भारत में लोक कला का विशेष महत्व इसलिए भी है क्योंकि ये लोक कलाएँ किसी जाति
विशेष से संबन्धित होती हैं। विभिन्न अवसरों पर अपने लोक कला का प्रदर्शन करते
हैं। इसमें इनकी आपसी ताल-मेल के साथ इनके लोक-धर्म,
लोक-विश्वास, लोक-वार्ता, लोक-मत, लोक-संस्कृति, लोक-मिथक इत्यादि भी प्रमुख भूमिका
निभाते हैं। भारतीय परिदृश्य में लोक कला के विकास का इतिहास अति प्राचीन है। लेकिन
इनके अध्ययन की शुरुआत बहुत अधिक पुरानी नहीं है। वर्तमान समय में विभिन्न
क्षेत्रों की लोक कलाओं पर अध्ययन प्रारम्भ हो चुके हैं। लोक कलाओं के अध्ययन की
शुरुआत यूरोपीय देशों से मानी जाती है।
यूरोप में लोक संस्कृति के अध्ययन का इतिहास कुछ बहुत
प्राचीन नहीं है। इस महाद्वीप के विभिन्न देशों में पृथक-पृथक रीति-रिवाज, आचार-विचार और रहन-सहन की परंपरा प्रचलित थी। परंतु इसके अध्ययन की ओर
विद्वानों का ध्यान 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ से पूर्व नहीं गया था। यूरोप में
भौतिक-विज्ञान, जीव-विज्ञान और मानव-विज्ञान के क्षेत्रों
में कुछ ऐसे भौतिकवादी सिद्धांतों की स्थापना हुई जिनसे प्रभावित होकर विद्वानों
ने अपने देश की सामाजिक परम्पराओं, धार्मिक विश्वासों तथा
राजनैतिक संस्थाओं का अध्ययन प्रारम्भ किया। 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में इन
उपर्युक्त विषयों का अनुसन्धान लोकप्रिय पुरावशेष (Popular Antiquities) के नाम से प्रसिद्ध है। उस समय के लोकप्रिय पुरावशेष के अंतर्गत
आचार-विचार, रहन-सहन, रीति-रिवाज और
विधि-विधानों का वर्णन किया जाता था। 1774 ई॰ में जे॰ जी॰ हर्डर ने ‘फॉक-स्लाइड’ (Volkslied)
अर्थात ‘फॉकसांग’ (लोकगीत) का प्रचलन
किया। अठारहवीं शताब्दी के अंत में लोक कथाओं के ही अर्थ में यह उससे थोड़ा भिन्न ‘फॉकसाज’ (Volkssage) शब्द का
जन्म हुआ। 1846 ई॰ में अंग्रेजी में ‘फॉकलोर’ (Folklore) शब्द का प्रचलन हुआ। इसी प्रकार विभिन्न
यूरोपीय देशों में इसी तरह की शब्दावलियाँ प्रयुक्त होने लगीं। विभिन्न विद्वानों
द्वारा अपने रुचि के आधार पर इन लोक संस्कृतियों, लोक कलाओं
इत्यादि का अध्ययन शुरू हो गया। इन परिवर्तनशील लोक कलाओं का संबंध किसी विशेष
समुदाय अथवा जाति से होता था, जो उसके सांस्कृतिक अभिज्ञान
का द्योतक समझा जाता था।
मानवशास्त्र में ‘लोक’ शब्द का दायरा संकीर्ण हो गया है। अमेरिकी मानवशास्त्रीय राबर्ट रेडफ़ील्ड
और उनके सहयोगियों द्वारा किए शोध में ‘लोक’ शब्द को प्रसिद्धि प्राप्त हुई। रेडफ़ील्ड ने भी यह महसूस किया कि लोक
अर्थात फोक (Folk) कोई सुनिश्चित रूप से परिभाषित शब्द नहीं
है, लेकिन यह ‘फोकलोर’ (Folklore) या ‘फोकसौंग’ Folksong) की मौजूदगी से इंगित होता है, जिसे संग्रहकर्ता आसानी से पहचान लेते हैं। जिन समाजों में ये फोकलोर/फोकसौंग्स
पश्चिम के मानवशास्त्रियों के अध्ययन द्वारा पाये गए या पाये जाते हैं, वैसे समाजों के लिए रेडफ़ील्ड ने ‘फोक सोसाइटी’ (लोक समाज) शब्द का प्रयोग किया। विभिन्न लोक समाजों में मानवशास्त्रियों
द्वारा पाये गए लक्षण के आधार पर एक आदर्श लोक समाज के लक्षणों के विवरण तैयार
किए। इनका मानना था कि किसी भी लोक समाज में कम या ज्यादा इसी आदर्श लोक समाज के
लक्षण रहेंगे; इसलिए आदर्श लोक समाज के लक्षणों के आधार पर
किसी लोक समाज को जानना ज्यादा सुलभ और वैज्ञानिक हो सकता है। रेडफ़ील्ड ने ‘लोक’ शब्द को ‘लोक-नगरीय
सातत्य’ के रूप में प्रस्तुत किया इन्होंने जनजातीय, ग्रामीण, कृषक तथा नगरीय सभ्यता के अध्ययन पर विशेष
बल दिया।
भारत में लोक अध्ययन दो प्रवृत्तियों के कारण हुआ। यहाँ
कार्यरत औपनिवेशिक अधिकारियों ने शासित को जानने-समझने के उद्देश्य से इसका अध्ययन
प्रारम्भ किया। बीसवीं शताब्दी के कुछ राष्ट्रवादी कवियों ने अपनी संस्कृति को महिमामंडित
करने के लिए लोक संस्कृति से सहारा लेने हेतु इसका अध्ययन तथा संकलन किया। भारतीय
संदर्भ में लोक संस्कृति के अध्ययन का श्रीगणेश जेम्स टाड ने राजस्थान के
लोकगाथाओं, कथाओं एवं जनश्रुतियों के संकलन से
प्रारम्भ किया। तत्पश्चात विभिन्न लोक संस्कृतियों और लोक कलाओं का अध्ययन
प्रारम्भ हुआ। लोक-संस्कृतिविद कृष्ण देव उपाध्याय ने लोक संस्कृति के संकलन एवं
लोक परंपरा के अध्ययन का प्रयास किया। इसी प्रकार भारत में भी ‘लोक’ शब्द का प्रयोग होने लगा। परंतु लोक शब्द अकेले में अपूर्ण लगता है इसलिए विद्वान
लोग इसे विभिन्न रूपों में प्रयोग करते हैं। भारत में किसी समाज के जन-जीवन को जानने-समझने
के लिए उस समाज के लोक कला, लोकगाथा,
लोकगीत, लोकोक्ति इत्यादि का अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण होता है
क्योंकि यह लोक कला उनकी पारंपरिक विरासत
होती है। इसका संबंध उनकी जाति, समुदाय तथा सांस्कृतिक
अभिज्ञानता से होता है। जिस प्रकार समाज और संस्कृतियाँ परिवर्तित होती रहती हैं, ठीक उसी प्रकार लोक कलाओं में भी निरंतरता देखने को मिलती हैं और उसमें
समय के साथ परिवर्तन भी होता रहता है।
लोककला, मानवीय चेतना के विकास के साथ सहज-स्फूर्त चेष्टाएँ हैं। उसके सौंदर्यपरक
मानसिक अनुषंगों की अभिव्यक्ति के रूप ये अस्तित्ववान हुईं। कलाओं की सृष्टि के
साथ ही मानव सभ्यता के विकास का सूत्रपात हुआ। मनुष्य के भीतर की स्फुटित प्रेरणा
विभिन्न कला-माध्यमों में बाह्य प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप ही उजागर हुईं।
मनुष्य की आदिम कलाएँ उसकी श्रम-मूलक चेष्टाओं से ही निष्पन्न हुई हैं। मनुष्य की
अपनी मानसिक दशाएँ- एकांतिकता, रमण-मूलक उत्तेजना क्षण, भूख-प्यास, समूह-भाव, विपरीत
लिंगी आकर्षण, उम्र के उतार-चढ़ाव और जैविक परिवर्तन भी लोक कलाओं
के लिए प्रेरणा-बिन्दु रहे हैं। लोक कलाएँ वैयक्तिक और सामूहिक संघातों की सहजात
अभिव्यक्तियाँ हैं। लोक कलाएँ जीवन के अंग-प्रत्यंग से जुड़ी रहती थी। कठिन शारीरिक
श्रम के काम संगीत से हल्के किए जाते थे। पेड़ काटना, नाव चलाना, बोझ खिचना, कपड़े धुलना, चक्की चलाना इत्यादि किसी-न-किसी
प्रकार के संगीत से जुड़े होते थे। भारतवासियों का जीवन सदा से कलात्मक रहा है और
आज भी है। सीधे शब्दों में “भारत की
अनेक जातियों व जनजातियों में पीढी-दर-पीढी चली आ रही पारंपरिक कलाओं को ‘लोक कला’ कहते हैं”।
धोबी से हमारा आशय उत्तर-प्रदेश राज्य की ‘धोबी जाति’ से है जो भारतीय संविधान के अनुसार
अनुसूचित जाति में आती है। इस जाति का एक पारंपरिक लोक कला है, जिसे ‘धोबिया’, ‘धोबीयऊ’ तथा ‘धोबी नाच’ इत्यादि नामों से जाना जाता है। ‘धोबिया’ लोक कला का ऐतिहासिक संबंध धोबी जाति से माना जाता है
क्योंकी इस लोक कला के जन्मदाता धोबी जाति के लोग माने जाते हैं। पारंपरिक रूप से
यह जाति कपड़े धोने का काम करते हैं। ‘धोबी’ शब्द की उत्पत्ति हिन्दी भाषा के ‘धोना’ तथा संस्कृत के ‘धाव’ शब्द से
माना जाता है, जिसका अर्थ ‘धोना’ है। धोबी जाति उत्तर-प्रदेश राज्य के अलावा पंजाब,
उड़ीसा, कर्नाटक, हरियाणा, तमिलनाडू, महाराष्ट्र और राजस्थान इत्यादि राज्यों
में भी पायी जाती हैं। इनकी लोक कला की अपनी विविधताएँ देखने को मिलती है क्योंकि
यह लोक कला संस्कृति से जुड़ी होती हैं और हम जानते हैं कि संस्कृति एक समग्र होता
है जिसमें कला भी प्रमुख भूमिका निभाता है। यह लोक कला भी संस्कृति के साथ-साथ परिवर्तित
होती रहती है। ‘धोबिया’ लोक कला
के निर्माण तथा प्रस्तुतीकरण का आधार भिन्न-भिन्न हटा है। इसमें लोक-मिथकों स्थान
प्रमुख होता है। ‘मिथक’ मानव चेतना की
प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हैं। अतः इसकी प्रतीकात्मकता की व्याख्या कर हम मानव चेतना
को समझ सकते हैं। मिथकों के विवरण में मानव की आदतें,
रुचियाँ अंकित होती हैं। फ़्रांज बोआस ने इसे ‘जनजातियों के
आत्मकथा’ के रूप में आविष्कृत किया है। अतः ‘धोबिया’ लोक कला में निहित प्रतीकात्मक रूपों को जानना अतिआवश्यक
है क्योंकि किसी हद तक यह लोक कला इनके
सांस्कृतिक अभिज्ञान का प्रतीक भी साबित हो सकता है। इसके साथ ही साथ यह भारतीय
लोक का प्रतिनिधित्व करता हुआ भी देखा जा सकता है।
‘धोबिया’
लोक कला पूर्वाञ्चल की प्रमुख लोक कला है।
उत्तर-प्रदेश राज्य के भोजपुरी क्षेत्र के धोबी समाज में यह लोक कला ‘सामूहिक लोक कला’ के रूप में जाना जाता है।‘धोबिया’ लोक कला के अंतर्गत धोबिया लोक गीत, धोबिया नाच, धोबिया नौटंकी, धोबिया वेश-भूषा, धोबिया लोक संगीत, धोबिया मिथक, धोबिया वाद्ययंत्र, धोबिया लोक संस्कृति, धोबिया साहित्य, धोबिया कहावतें और धोबिया लोकविश्वास इत्यादि लोक कलाओं का
हिस्सा है।‘धोबिया’ लोक कला भोजपुरी की प्रमुख लोक कला है परंतु इस लोक कला
पर लिखित प्रमाणों के अभाव हैं।
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