Friday, 18 August 2017

डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल (DNA)
परिचय-
डी. एन. ए. जीवित कोशिकाओं के गुणसूत्रों में पाए जाने वाले तंतुनुमा अणु को डी-ऑक्सीराइबोन्यूक्लिक अम्ल या डी एन ए कहते हैं। इसमें अनुवांशिक कूट निबद्ध रहता है। DNAअणु की संरचना घुमावदार सीढ़ी की तरह होती है।डीएनए की एक अणु चार अलग-अलग रास वस्तुवों से बना है, जिन्हे न्यूक्लियोटाइड कहते है| हर न्यूक्लियोटाइड एक नाइट्रोजन युक्त वास्तु है| इन चार न्यूक्लियोटाइडो को अडेनिन, ग्वानिन, थाइमिन और साइटोसिन कहा जाता है| इन न्यूक्लियोटाइडो से युक्त डिऑक्सीराइबोस नाम का एक शक्कर भी पाया जाता है| इन न्यूक्लियोटाइडो को एक फॉस्फेट की अणु जोड़ती है| न्यूक्लियोटाइडोके सम्बन्ध के अनुसार एक कोशिका के लिए अवश्य प्रोटीनों की निर्माण होता है| अतः DNAहर एक जीवित कोशिका के लिए अनिवार्य है|
Nucleoside- nitrogenous base + deoxi-ribos sugar
Nucleotide- nitrogenous base + deoxi-ribos sugar- phosphate group
          डीएनए आमतौर पर क्रोमोसोम के रूप में होता है| एक कोशिका में गुणसूत्रों के सेट अपने जीनोम का निर्माण करता है; मानव जीनोम 46 गुणसूत्रों की व्यवस्था में डीएनए के लगभग 3 अरब आधार जोड़े है| जीन में आनुवंशिक जानकारी के प्रसारण की पूरक आधार बाँधना के माध्यम से हासिल की है| उदाहरण के लिए, एक कोशिका एक जीन में जानकारी का उपयोग करता है जब प्रतिलेखन में, डीएनए अनुक्रम डीएनए और सही आरएनए न्यूक्लियोटाइडों के बीच आकर्षण के माध्यम से एक पूरक शाही सेना अनुक्रम में नकल है| आमतौर पर, यह आरएनए की नकल तो शाही सेना न्यूक्लियोटाइडों के बीच एक ही बातचीत पर निर्भर करता है जो अनुवाद नामक प्रक्रिया में एक मिलान प्रोटीन अनुक्रम बनाने के लिए प्रयोग किया जाता है| वैकल्पिक भानुमति में एक कोशिका बस एक प्रक्रिया बुलाया डीएनए प्रतिकृति में अपने आनुवंशिक जानकारी कॉपी कर सकते हैं|डी एन ए की रूपचित्र की खोज अंग्रेजी वैज्ञानिक जेम्स वॉटसन और फ्रान्सिस क्रिक के द्वारा सन १९५३ में किया गया था। इस खोज के लिए उने सन १९६२ में नोबेल पुरस्कार सम्मानित किया गया।
डी. एन. ए.संरचना-
पॉलीन्यूक्लियोटाइडश्रंखला की संरचना-
डीएनए या RNA की रासायनिक संरचना संक्षेप में निम्न है। न्यूक्लियोटाइड के तीन घटक होते हैं नाइट्रोजनी क्षार, पेंटोस शर्करा;RNA के मामले में रिबोस तथा डीएनए में डीआँक्सीरिबोज और एक फोस्फेट ग्रुप। नाइट्रोजनीक्षार दो प्रकार के होते है
प्यूरीन्स-एडेनीन व ग्वानिन व
पायरिमिडीन-साइटोसीन, यूरेसिल व थाइमीन।
साइटोसीन डीएनए व RNA दोनों में मिलता है जबकि थाइमीन डीएनए में मिलता है। थाइमीन के स्थान पर यूरेसील RNA में मिलता है। नाइट्रोजनी क्षार नाइट्रोजन ग्लाइकोसिडिक बन्ध द्वारा पेंटोस शर्करा से जुड़कर न्यूक्लियोसाइडबनाता है। जैसे एडीनोसीन या डीआँक्सी एडीनोसीन, ग्वानोसीन या डीआँक्सी ग्वानोलीन, साइटीडीन या डीआँक्सीसाइटीडीन व यूरीडीन या डीआँक्सी थाइमीडीन। जब फोस्फेट समूह फास्पोएस्टर बन्ध द्वारा न्यूक्लीयोसाइड के 5’हाइड्रोक्सील समूह से जुड़ जाता हैतब सम्बन्धित न्यूक्लियोटाइड्स;डीआँक्सी न्यूक्लियोटाइड्स उप-स्थित शर्करा के प्रकार पर निर्भर है। का निर्माण होता है। दो -न्यूक्लियोटाइड्स 3-5 फास्पोडाइस्टर बन्ध द्वारा जुड़कर डाईन्यूक्लियोटाइड का निर्माण करता है। इस तरह से कई न्यूक्लियोटाइड्स जुड़कर एक पॉलीन्यूक्लियोटाइड्स श्रंखला का निर्माण करते हैं। इस तरह से निर्मित बहुलक के राइबोज शर्करा के 5 किनारे पर स्वतंत्र फोस्फेट समूह मिलता है जिसे पॉलीन्यू-क्लयोटाइड श्रंखला का 5 किनारा कहते हैं। ठीक इसी तरह से बहुलक के दूसरे किनारे पर राइबोज मुक्त 3हाइड्रोक्सील समूह से जुड़ा होता है।पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रंखलाका 3 किनाराकहते हैं। पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रंखला के आधार का निर्माण शर्करा व पफॉस्पेफट्स से होता है। नाइट्रोजनी क्षार शर्करा अंश से जुड़ा होता है जो आधारसे प्रक्षेपित होता है।
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          प्रेफडरीच मेस्चर ने 1869 में केद्रक में मिलने वाले अम्लीय पदार्थ डीएनए की खोज की थी। उसने इसका नाम न्यूक्लिनदिया। ऐसे लंबे संपूर्ण बहुलक को तकनीकी कमियों के कारण विलगित करना कठिन था, इस कारण से बहुत लंबे समय तक डीएनए की संरचना के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं थी। मौरिस विल्किंसन व रोजलिंड पैंफकलिनद्वारा दिए गए एक्स-रे निवर्तन आंकड़े के आधार पर 1953 में जेम्स वाट्सन व प्रफान्सिस त्रीक ने डीएनए कीसंरचना का द्विकुण्डली नमूना प्रस्तुत किया। उनकेप्रस्तावों में पॉलीन्यूक्लियोटाइडश्रंखलाओं के दो लडि़यों के बीच क्षार युग्मन की उप-स्थिति एक बहुत प्रमाणित श्रंखलाचेन थी। उपरोक्त प्रस्ताव द्विकुण्डली डीएनए के इर्विन चारगाफ के परीक्षण के आधार पर
भी था जिसमें इसने बताया कि एडनिन व थाइमिन तथा ग्वानिन व साइटोसीन के बीच अनुपातस्थित व एक दूसरे के बराबर रहता है। क्षार युग्मन पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रंखलाओं की एक खास विशेषता है। ये श्रंखलाए एक दूसरे के पूरक है इसलिए एक रज्जुक में -स्थित क्षार युग्मों के बारे जानकारीहोने पर दूसरी रज्जुक के क्षार युग्मों की कल्पना कर सकते हैं।
द्विकुण्डली डीएनए की संरचना की खास विशेषताए निम्न हैं
·       यह दो पॉलीन्यूक्लियोटाइडश्रंखलाओं का बना होता है जिसका आधारशर्करा-फोस्फेट का बना होता हैव क्षार भीतर की ओर प्रक्षेपी होता है।
·       दोनों श्रंखलाए प्रति समानांतर ध्रुवणता रखती है। इसका मतलब एक श्रंखला कोध्रुवणता 5से 3की ओरहोतोदूसरेकीध्रुवणता 3से 5कीतरहहोगी।
·       दोनों रज्जुकों के क्षारआपस में हाइड्रोजन बन्ध द्वारा युग्मित होकर क्षार युग्मक बनाते हैं। एडेनिन वथाइमिन जो विपरीत रज्जुकों में होते हैं। आपस में दो हाइड्रोजन बन्ध बनातेहैं। ठीक इसी तरह से ग्वानीन साइटोसलीन से तीन-हाइड्रोजन बन्ध द्वारा बंधा रहताहै जिसके पफलस्वरूप सदैव यूरीन के विपरीत दिशा में पीरीमिडन होता है। इससे कुण्डलीके दोनों रज्जुकों के बीच लगभग समान दूरी बनी रहती है।
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·       दोनों श्रंखलाए  दक्षिणवर्ती कुंडलित होती हैं।कुण्डली का पिच 3.4 नैनोमीटर ;एक नैनोमीटर एक मीटर का 10 करोड़वा भाग होता हैवह 10-9 मीटर के बराबर है। व प्रत्येक घुमाव में लगभग 10 क्षार युग्मक मिलते हैं। परिणामस्वरूपएक कुण्डली में एक क्षार युग्मक के बीच लगभग 0.34 नैनोमीटर की दूरी होती है।
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डी. एन. ए. प्रतिकृति
कोशिका विभाजन एक जीव विकसित करने के लिए आवश्यक हैलेकिन जब एक सेल कोशिका विभाजित होती है, तो विभाजन के फलस्वरूप उत्पन्न दोनों कोशिकाओं के जीनोम में मूल कोशिका के डीएनए की हूबहू प्रतिकृति बननी चाहिए। इसलिए डीएनए की द्विपट्टिका संरचना डीएनए प्रतिकृति के लिए एक सरल तंत्र प्रदान करती है। यहां, डीएनऐ के दो रेशे या पट्टिकाऐं अलग हो रही हैं और फिर एक पट्टिका के संपूरक डीएनए अनुक्रम डीएनए पोलीमरेज़ नामक एंजाइम द्वारा निर्मित किए जाते हैं। यह एंजाइम पूरक संयुक्ताधार युग्मन के माध्यम से सही आधार खोजने, और मूल संबंध द्वारा पूरक किनारा बनाती है। क्योंकि डीएनए पोलीमरॅसिस केवल 5' 3' की दिशा में विस्तार कर सकते हैं, द्विकुण्डल असमानांतर पट्टी की प्रतिकृति बनाने हेतु भिन्न प्रक्रिया होती है। इस प्रकार पुरानी गुणसूत्र पट्टी का आधार यह बताता है कि नई पट्टी पर क्या आधार रहेगा। और इस तरह नई कोशिका के डीएनए गुणसूत्र अपनी जनक कोशिका के गुणसूत्र की हूबहू प्रतिकृति होते हैं।


Thursday, 30 March 2017


धोबिया लोककला की विषय-वस्तु:
          धोबिया लोककला एक ऐसी विधा के रूप में प्रचलित है जिसे लोकसाहित्य के रूप में भी देखा जा सकता है क्योंकि धोबिया लोककला में गीत, कहानियाँ, नृत्य, कथाएँ, गाथाएँ, मिथक, मुहावरें, लोकोक्तियाँ, संगीत, वाद्य-यंत्र एवं वेश भूषा इत्यादि होते हैं। जो मौखिक परंपरा के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस स्थानीय समाज में देखने को मिलता है। धोबिया लोककला के विभिन्न स्वरूपों में उसकी विशेष विषय-वस्तु कि झलक देखने को मिलती है। धोबी जाति कि पारंपरिक लोककला में धोबी जाति के समाज, संस्कृति एवं सांस्कृतिक परिवर्तन  एवं एक धोबी के स्वयं के जीवन संघर्ष को केंद्र में रख कर प्रस्तुत किया जाता है। इसके साथ ही साथ आधुनिक समय में हुए सांस्कृतिक परिवर्तनों को भी धोबिया लोक कला के विषय-वस्तु के रूप में देखा जा सकता है। धोबिया लोककला के विभिन स्वरूपों में परिलक्षित होने वाले विषय-वस्तुओं का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है।
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मानव:    
          समाज की प्रथम इकाई के रूप में मानव का स्थान आता है जिसने अपने विभिन्न व्यवहारों से समाज का निर्माण किया था और उसके द्वारा किया जाने वाला विभिन्न व्यवहार ही संस्कृति के नाम से जानी जाती है। मानव हमेशा क्रियाशील रहता है और अपनी क्रिया और कार्य से समाज में जीवन का निर्वाह करता है। समाज में मानव का भिन्न-भिन्न प्रस्थिति होती है जिसका निर्धारण उसका समाज करता है और इस प्रस्थिति के अनुरूप ही मानव विभिन्न प्रकार की भूमिका का निर्वाह करता है। समाज में मानव दो प्रकार से भूमिका का निर्वाह करते हुए समाजीकरण को प्रदर्शित करता है, जिसे आरोपित एवं अर्जित भूमिका कहते हैं। अतः मानव एक ऐसा प्राणी है जो समाज में रहते हुए मानवों के समूह से आपसी संबंध का निर्माण करता है। इसीलिए फिक्टर (1957:19) ने मानव के संबंध में कहा है कि “व्यक्ति एक अकेला किन्तु मिश्रित एवं जटिल प्राणी है।” विभिन्न लोक कलाओं में मानव के प्रस्थिति एवं भूमिका को केंद्र में रखा जाता है, जिसे लोक कलाकार स्थानीय समाज और उसकी संस्कृति का अभिन्न अंग मानते हुए गीतों, कहानियों, मुहावरों, नृत्यों, कथाओं एवं गाथाओं में प्रदेशित करते हैं ताकि उस समाज में मानव के सामाजिक प्रस्थिति एवं भूमिका की जानकारी प्राप्त हो सके और समाजीकरण की प्रक्रिया नियमित रूप में संचालित हो सके। यही क्रम पूर्वाञ्चल क्षेत्र के मिर्ज़ापुर एवं गाजीपुर जिले में प्रचलित धोबिया लोककला के विभिन्न स्वरूपों में देखने को मिलती है। जैसे गीतों की रचना में करने वाले धोबी जाति के कलाकार मानव के जीवन संघर्ष को विशेष ध्यान रखते हैं। विभिन्न धोबिया लोग गीतों में धोबी और धोबिन के जीवन संघर्ष को देखा जा सकता है। इसी प्रकार नृत्य, कहानियों, मुहावरों, कथाओं, गाथाओं इत्यादि में धोबी का वर्णन स्वतंत्र रूप में देखने को मिलता है। अतः धोबिया लोक कला की प्रथम विषय वस्तु के रूप में मानव (धोबी-धोबिन) का प्रथम स्थान है। जैसे-
अरे ssssssss… धोबिया रे धोबिया…….
अरे तोहरे करजवा के शोर भइल धोबिया..... ।।
उची-उची जतिया के कुलीन धरनवा ......... ॥
दूर कइले धोबिया............... ॥
समाज:
          समाज मानवीय अंत:क्रियाओं के प्रक्रम की एक प्रणाली है। मानवीय क्रियाएँ चेतन और अचेतन दोनों स्थितियों में साभिप्राय होती हैं। व्यक्ति का व्यवहार कुछ निश्चित लक्ष्यों की पूर्ति के प्रयास की अभिव्यक्ति है। उसकी कुछ नैसर्गिक तथा अर्जित आवश्यकताएँ होती हैं - काम, क्षुधा, सुरक्षा आदि। इनकी पूर्ति के अभाव में व्यक्ति में कुंठा और मानसिक तनाव व्याप्त हो जाता है। वह इनकी पूर्ति स्वयं करने में सक्षम नहीं होता अत: इन आवश्यकताओं की सम्यक् संतुष्टि के लिए अपने दीर्घ विकासक्रम में मनुष्य ने एक समष्टिगत व्यवस्था को विकसित किया है। इस व्यवस्था को ही हम समाज के नाम से सम्बोधित करते हैं। यह व्यक्तियों का ऐसा संकलन है जिसमें वे निश्चित संबंध और विशिष्ट व्यवहार द्वारा एक दूसरे से बँधे होते हैं। व्यक्तियों की वह संगठित व्यवस्था विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न मानदंडों को विकसित करती है, जिनके कुछ व्यवहार अनुमत और कुछ निषिद्ध होते हैं।
          समाज में विभिन्न कर्त्ताओं का समावेश होता है, जिनमें अंत:क्रिया होती है। इस अंत:क्रिया का भौतिक और पर्यावरणात्मक आधार होता है। प्रत्येक कर्त्ता अधिकतम संतुष्टि की ओर उन्मुख होता है। सार्वभौमिक आवश्यकताओं की पूर्ति समाज के अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अनिवार्य है। तादात्म्यजनित आवश्यकताएँ संरचनात्मक तत्वों के सहअस्तित्व के क्षेत्र का नियमन करती है। क्रिया के उन्मेष की प्रणाली तथा स्थितिजन्य तत्व, जिनकी ओर क्रिया उन्मुख है, समाज की संरचना का निर्धारण करते हैं। संयोजक तत्व अंत:क्रिया की प्रक्रिया को संतुलित करते है तथा वियोजक तत्व सामाजिक संतुलन में व्यवधान उपस्थित करते हैं। वियोजक तत्वों के नियंत्रण हेतु संस्थाकरण द्वारा कर्ताओं के संबंधों तथा क्रियाओं का समायोजन होता है जिससे पारस्परिक सहयोग की वृद्धि होती है और अंतर्विरोधों का शमन होता है। सामाजिक प्रणाली में व्यक्ति को कार्य और पद, दंड और पुरस्कर, योग्यता तथा गुणों से संबंधित सामान्य नियमों और स्वीकृत मानदंडों के आधार पर प्रदान किए जाते हैं। इन अवधाराणाओं की विसंगति की स्थिति में व्यक्ति समाज की मान्यताओं और विधाओं के अनुसार अपना व्यवस्थापन नहीं कर पाता और उसका सामाजिक व्यवहार विफल हो जाता है, ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर उसके लक्ष्य को सिद्धि नहीं हो पाती, क्योंकि उसे समाज के अन्य सदस्यों का सहयोग नहीं प्राप्त होता। सामाजिक दंड के इसी भय से सामान्यतः व्यक्ति समाज में प्रचलित मान्य परंपराओं की उपेक्षा नहीं कर पाता, वह उनसे समायोजन का हर संभव प्रयास करता है। इस प्रकार समाज में व्यक्तियों के आपसी ताल-मेल, जीवन संघर्ष, समझौता एवं हर्ष-विषाद का क्रम चलता रहता है जिससे प्रत्येक समाज में सामाजिक पर्यावरण का निर्माण और अस्तित्व बना रहता है। स्थानीय समाज में देखने जाने वाले विभिन्न सामाजिक संस्थाओं को लोककला का केंद्र बनाया जाता है और उसमें प्रचलित रीतियाँ और कुरीतियों को लोकगीतों एवं कहानियों के माध्यम से सुनाया जाता है।
          धोबिया लोककला में भी सामाजिक संस्थाओं जैसे जादू-टोना, परिवार, जजमानी प्रथा, जाति प्रथा, दहेज प्रथा, विवाह, सामाजिक नातेदारी एवं संबंधों को गीतों के रूप में लिपिबद्ध किया जाता है और उसी स्थानीय समाज में गया जाता है। यही कारण है की धोबिया लोककला के विभिन्न स्वरूपों में स्थानीय समाज के वास्तविक स्वरूप का चित्रण देखने को मिलता है।

संस्कृति:
          सरल शब्दों मे हम कह सकते हैं कि संस्कृति उस विधि का प्रतीक है जिसके आधार पर हम सोचते हैं; और कार्य करते हैं। इसमें वे अमूर्त/अभौतिक भाव और विचार भी सम्मिलित हैं जो हमने एक परिवार और समाज के सदस्य होने के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं। एक सामाजिक वर्ग के सदस्य के रूप में मानवों की सभी उपलब्धियाँ उसकी संस्कृति से प्रेरित कही जा सकती हैं। कला, संगीत, साहित्य, वास्तुविज्ञान, शिल्पकला, दर्शन, धर्म और विज्ञान सभी संस्कृति के प्रकट पक्ष हैं। तथापि संस्कृति में रीतिरिवाज, परम्पराएँ, पर्व, जीने के तरीके, और जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का अपना दृष्टिकोण भी सम्मिलित हैं। अर्थात संस्कृति के अंदर किसी समाज में रहने वाले मानव के वे सभी व्यवहार सम्मिलित होते हैं जिसे मानव उस समाज का सदस्य होने के नाते ग्रहण करता है। समाज में रहते हुए मानव सामाजिक संस्थाओं के अधीन अपने सुख-दुख, रहन-सहन, हर-परिहास, हर्ष-विषाद एवं जीवन संघर्ष को  सरलतम तरीके से निर्वाह करता है और इन्हीं मानवीय और सामाजिक क्रियाओं का संचालन के दौरान जिस रूप में अपने मानो-भावों की अभिव्यक्ति अपने स्थानीय समाज में करता है, उसे लोक कला के नाम से जाना जाता है। क्योंकि यह अभिव्यक्ति वही स्थिर नहीं होती है बल्कि वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी सांस्कृतिक अभिज्ञानता एवं निरंतरता के रूप में हस्तांतरित होती रहती है। इसलिए विभिन्न समाजों में प्रचलित लोककलाओं की विषय वस्तु के रूप में उस समाज के संस्कृति के सभी तत्व सम्मिलित होते हैं।
          पूर्वाञ्चल क्षेत्र के मिर्ज़ापुर एवं गाजीपुर जिले में प्रचलित धोबिया लोककला की विशेषता भी यही है कि इस लोककला में धोबी समाज में प्रचलित विभिन्न सांस्कृतिक क्रिया-कलाप एवं धोबिया संस्कृति के तत्वों को धोबिया लोक कलाकार इस लोककला के विभिन्न स्वरूपों में सम्मिलित करते हैं। इसीलिए धोबिया लोककला के विषय वस्तु में धोबिया संस्कृति को प्रमुखता प्रदान है, जिसे निम्नलिखित धोबिया गीत देखा जा सकता है।
दिन भर धोबी घाट पर सुखला मोर चाम हो॥
टिकुली जे मार के तू करेलु आराम हो॥
          इसी प्रकार धोबी जाति में विभिन्न त्यौहारों के खुशहली में विभिन्न प्रकार के लोकगीतों को गया जाता है जिसे स्थानीय समाज में बहुत पसंद किया जाता है। इन गीतों में पर्वों कि विशेषता का वर्णन किया जाता है। जैसे-
दशहरा दिवाली छट सब बित गेल प्रदेश मे,
फगुआ मे रंग अबिर खेलैत छली अंगना बारी मे,
साथी-सँगी  सँग-सँग जाई छी दुवारी दुवारी,
रंग से नहबै छी बाल्टी भैर भैर पानी॥
जीवन संघर्ष:
          धोबी जाति का जीवन बहुत कठिन होता है जिसमें वह दिनभर घाट पर कपड़े धोते हुए बीतता है और दिन भर के कार्य को वह अपने जीवन संघर्ष के रूप में बयान करता है। यही कारण है कि धोबिया लोकगीत में समान्यतः एक धोबी और धोबिन के आपसी जीवन को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। इसके अलावा धोबी समाज में पारिवारिक जीवन संघर्ष को भी केंद्र में रखा जाता है क्योंकि धोबिया लोकगीत की रचना करने वाला स्वयं ही एक धोबी होता है जो अपने जीवन संघर्ष को स्वयं अपने स्वरों में गाता है। प्रारम्भ में धोबिया लोकगीतों को सीधे उन्हीं समाजों में सुना जाता था, परंतु आज इन गीतों को लिखने वाले वे भी लोग होते है जो धोबी जाति के लोगों के जीवन संघर्ष को बहुत नजदीक से देखते हैं।           
पौराणिक कथाएँ:
          पौराणिक कथाएँ धोबिया लोक कलाओं की एक प्रमुख विषय-वस्तु है जिसमें स्थानीय लोक कथाओं के अलावा सार्वभौमिक लोककथाओं को भी गया जाता है। धोबिया पौराणिक कथाओं में सबसे ज्यादा शिव-पार्वती, राम-सीता, कृष्ण-राधा और भीम-तुलसी की कथाएँ सुनने को मिलती हैं। इसके अलावा स्थानीय लोककथाओं जैसे डीह बाबा की कथा, बाजू बाबा की कथा, टेडुया बाबा की कथा, भण्डारी माई की कथा इत्यादि प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा घरेलू देवी-देवता की कथाएँ भी गीतों के रूप में गयी जाती हैं। जैसे की कृष्ण के द्वारा गोपियों के दहि मटकी फोड़ने की क्रिया धोबिया लोक गीतों की रोचकता है। -
किछू दिन कान्हा गऊवा के चरावत बाटें
किछू दिन गावे कान्हा गीत,
किछू दिन कान्हा मजवा उडावे
सौरह सौ गुवालीन के बीच।
स्थानीय कहानियाँ एवं मुहावरें:
          धोबिया लोककला में स्थानीय कहानियों और मुहावरों से संबन्धित कथाएँ एवं गीत गए जाते हैं, जैसे बैजु बाबा के जीवन से संबन्धित कहानियों को सुनाते हैं। बाजू बाबा एक गरीब घर के थे जिन्होंने अपना घर-बार छोड़ दिया था और वे जिस किसी के सर पर हाथ फेर देते थे उसके सभी दुख खत्म हो जाते थे। बाजू बाबा के कार्यों को गीतो के रूप में भी गाया जाता है। इसके अलावा तुलसी और भीम देव की कहानियाँ भी धोबी जाति में प्रचलित हैं। धोबी जाति की महिलाएं एवं बुजुर्ग लोग बच्चों को “जादुई हरेवा-परेवा” की कहानियाँ भी सुनाते हैं। विभिन्न राजा और रानी की कहानियाँ धोबी जाति में बहुत प्रचलित हैं जिसका उद्देश्य बच्चों में सामाजिक मूल्यों की सीख देना होता है।  
स्थानीय पारिस्थितिकी:
          स्थानीय पारिस्थितिकी से तात्पर्य उस पर्यावरण से है जिस पर्यावरण में धोबी जाति के लोग अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। धोबी जाति के गाँव जिस शहर के नजदीक होते हैं वे उस शहर के प्राकृतिक छटा और उसके पौराणिक इतिहास का वर्णन धोबिया गीतों एवं कथाओं में करते हैं। इसके साथ ही साथ उस गाँव के प्राकृतिक छटा को भी गीत के रूप में गाते हैं। जैसे प्रस्तुत शोध का विषय क्षेत्र पूर्वाञ्चल का मिर्ज़ापुर एवं गाजीपुर जिला था जो पौराणिक और धार्मिक नगरी वाराणसी से बहुत नजदीक है। वाराणसी पौराणिक और धार्मिक दृष्टि से बहुत प्रसिद्ध है और यहाँ अनेकों ऐसे स्थान है जो किसी विशेष उत्पाद के लिए प्रसिद्द हैं। इसी विशेष प्रसिद्धि को धोबी जाति के लोग अपने गीतों में शामिल भी करते हैं। जैसे की एक धोबिन अपने पति से कहती है कि मुझे एक दिन बनारस घूमा दो और उस के गीत में वाराणसी के विभिन्न स्थानों का वर्णन करती है जिसे वह देखना चाहती है।
ए राजा हमके बनारस घूमाद
चल के गोदौलिया के पनवा खियाद
चला चौका पे चम-चम चीखादी
ठंठायी पियादी और पनवा खियादी
ए राजा हमके बनारस घूमाद॥
आधुनिक परिवर्तन:
          धोबिया लोककला में वर्तमान समय में आधुनिक परिवर्तन से संबन्धित विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक परिवर्तन को केंद्र में रखकर गीत गए जाते हैं। आधुनिका के दौर में हुए परिवर्तनों जैसे- नारी सशक्तिकरण, जाति प्रथा उन्मूलन, परिवार विघटन, संचार के माध्यमों, व्यावसायिक प्रवसन, विभिन्न सौंदर्य प्रसाधनों के प्रयोग इत्यादि का प्रयोग धोबिया लोकगीतों में देखने को मिलता है। जैसे के एक धोबिया लोकगीत में संयुक्त परिवार के विघटन पर गीत सुनने को मिलता है।
घर कैसे बिगड़ी हो, घर कैसे  सुघरी
होला जब रूपिया गिनउवल
ताबे नु होला बख़रा बटउवल

रूप विधान एवं प्रेम:
धोबिया लोककला में रूप विधा एवं प्रेम पर आधारित गीतों की बहुलता है क्योंकि वर्तमान समय में धोबिया लोककलाकर स्त्रियों के रूप रंग और रूप विधान पर गीतों को लिखते हैं और गाते हैं। इसके साथ ही साथ स्त्रीय प्रेम को भी धोबिया लोककला का प्रमुख बिन्दु माना जाता है। पति-पत्नी के आपसी प्रेम को भी धोबिया लोकगीत में गाकर नृत्य किया जाता है। इसके साथ ही साथ ननद-भौजाई के प्रेम और नोक-झोक को भी धोबिया लोकगीत के रूप में गाया जाता है। जैस की प्रस्तुत लोकगीत में स्त्री के रूप विधान को झलक दिखाई देती है।
मारे हो जन मरकहवा कजरवा
ले ले ई परान मरकहवा कजरवा
मरेहो जन मरकहवा कजरवा
हमरो शृंगार मरकहवा कजरवा
मारे हो जन मरकहवा कजरवा
          धोबिया लोककला में स्त्री के रूप विधान के अलावा शृंगार प्रसाधन, वस्त्र-आभूषण, पत्र-लेखन (प्रेमी-प्रेमिका के बीच), दैनिक भोजन एवं स्त्री के मनमोहन नखरे को भी धोबिया गीत की विषय वस्तु माना जाता है। जैसे एक गीत में औरत की जरूरत को लेकर गीत गाया जाता है।
अरे भौजी जबले आयी न मेहरिया हो,
तब ले करब ना नोकरीया हो।
मेहर होली अइसन ललकहरा हो,
देवर जइबा नाही बहरा हो।
लोक विश्वास:

          धोबिया लोककला में लोकविश्वास का सबसे प्रमुख स्थान होता है क्योंकि धोबी जाति के लोग स्थानीय परिवेश में प्रचलित लोक विश्वासों के प्रति विशेष बल देते है और इन्हीं विश्वासों को गीतों और कहानियों के रूप में सुनाते हैं। 

Monday, 20 March 2017

धोबिया लोक कला में सार्वभौमिकरण, आधुनिकीकरण और जनजाती-जाति-सांतत्य के लक्षणों का मानवशास्त्रीय अन्वेषण

धोबिया लोक कला में सार्वभौमिकरण, आधुनिकीकरण और जनजाती-जाति-सांतत्य के लक्षणों का मानवशास्त्रीय अन्वेषण
प्रस्तावना-                                                                                                                           
            कला का क्षेत्र बहुत व्यापक है और इसमें लोगों के मत भी भिन्न-भिन्न हैं। कला संस्कृत भाषा की कल धातु से बनी है जिसका तात्पर्य सुंदरता, मंत्रमुग्धकारक, प्रसन्न करने वाली इत्यादि है। अर्थात जो मन या चित्त को प्रसन्न करे वही कला है[1]। कला की अभिव्यक्ति कैसे और क्यों होती है? यह भी एक मनोवैज्ञानिक पहलू है। “अभिव्यक्ति मानसिक अनुभूतियों के कारण उत्पन्न होने वाले भावों द्वारा साकार हो उठती है। ये भाव जब बाह्य जगत के रूप संस्कार को देखकर उत्पन्न होते हैं और अपनी प्रतिभा के कारण जब वे साकार रूप में प्रकट हो जाते हैं, तब कला या अभिव्यक्ति का रूप ही सम्मुख उपस्थित हो जाता है” (तिवारी, भोलानाथ.2003)। कला या अभिव्यक्ति अनेक प्रयोजनों द्वारा प्रकट होती है जिसका उद्देश्य मानव मन को सम्मोहित करना होता है। कला में एक प्रमुख बात यह भी होता है कि कला को प्रस्तुत या बनाने वाला जिसे कलाकार कहते हैं, उस विशिष्ट कार्य में दक्ष एवं निपूर्ण होता है। उसकी दक्षता और प्रतिभा ही कला का द्योतक होता है और कला व कलाकार की वास्तविक पहचान एवं परिभाषा होती है।
            कला की गणना अथवा प्रकार के संबंध में भी बड़े मतभेद हैं। जैसे- कामसूत्र में 64 प्रकार की कलाओं का वर्णन मिलता है, जैन ग्रन्थों में 72 कलाओं का वर्णन है। प्रसिद्ध कश्मीरी पंडित ने तो अपनी पुस्तक “कला विकास” में कलाओं के सबसे अधिक प्रकार बताए हैं। इन्होंने 64 जन उपयोगी कलाओं, 64 सुनारों द्वारा सोना बनाने की कलाएं, वेश्यावृति से संबंधित 64 कलाएं, 10 भेषज कलाएं, कायस्थों द्वारा प्रयोग 10 कलाओं इत्यादि का वर्णन मिलाता है। परंतु सम्पूर्ण कला वस्तुतः दो भागों में विभक्त हो सकती है।
1-      उपयोगी कला
2-      ललित कला
            ललित कला से तात्पर्य है– वे कलाएं जिनकी सुंदरता, मौलिकता, सजीवता से दर्शक या श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाता है। जैसे- वस्तु कला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीत कला एवं काव्यकला इत्यादि।
            उपयोगी कला से तात्पर्य जन साधारण के उपयोग में प्रयुक्त होने वाली कलाएं। खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, रहने-बैठने, आन-जाने, कमाने-खाने इत्यादि की सुविधाओं के लिए जिन आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है, वे ही उपयोगी कला होती हैं।
            प्रस्तुत शोध पत्र का संबंध भी इन्हीं उपयोगी कलाओं से है जो विभिन्न रूपों और प्रकारों से जन साधारण द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है एवं समाज में जनजागरण, जनसंचार व अभिज्ञान को फैलाता आ रहा है। इन्हीं कलाओं में लोक कला भी प्रमुख स्थान रखता है। लोक कला पर विचार करने से पहले यह भी जानना आवश्यक है कि लोक क्या है?
            लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है बल्कि गाँवों एवं कस्बों में फैली हुई वो समस्त जनता है, जिसके व्यवहार-ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं है, ये लोग नगर में परिष्कृत रूप सम्पन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल तथा अकृत्रिम जीवन के अभ्यस्त होते हैं तथा परिष्कृत रुचि वाले लोगों कि समूची विलासिता एवं सुकुमारता को जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएँ आवश्यक होती है, उन्हें उत्पन्न करते हैं।[2] लोक का सीधा संबंध उस जन साधारण लोगों से है जो सरल और साधारण जीवन बिताते चले आ रहे हैं। इन्हीं लोगों (जाति एवं जनजाति) द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही पारंपरिक कलाओं को ही लोक कला कि संज्ञा दी जाती है। लोक कला जनगण के उस स्तर की काव्यात्मक, संगीतात्मक और चित्रात्मक गतिविधियाँ हैं, जो अशिक्षित है और जिसका शहरीकरण व औद्योगीकरण नहीं हुआ है। लोक कला में उत्पादक और उपभोक्ता को अलग कर पाना मुश्किल कार्य होता है एवं उनके बीच सीमा रेखा हमेंशा तरल रहती है।[3]
            लोक कला का संबंध देशज संस्कृति के लोगों से होता है जो समान्यतः गाँवों एवं कस्बों में साधारण जीवन बिताते हैं। जीवन निर्वाह करते समय अपने सामान्य जीवन की आप-बीती, कठिनाइयों, विश्वासों, प्रथाओं, संस्कृति तथा क्रिया-कलापों को अपने मनोरंजन एवं अपनी पहचान के रूप में याद करते हैं। इन्हीं यादों को विभिन्न क्रियाओं एवं प्रतिक्रियाओं के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में परंपरा के रूप में बताते तथा सीखते हैं। जन साधारण द्वारा पारंपरिक कला के रूप में मनाये जाने वाले समस्त मानव व्यवहारों को ही लोक कला कहा जाता है। यह लोक कला उस जन समुदाय के अभिज्ञान (पहचान), सांस्कृतिक प्रतिरूप तथा मनोरंजन का माध्यम होता है।
            भारतीय दृष्टिकोण से लोक कला की अपनी पहचान और विविधता देखने को मिलती है। समाज के वे लोग जो सामान्य जीवन का निर्वाह करते है तथा अपने मनोभावों को अपनी पहचान के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित भी करते हैं। इसी को हम लोक कला का दर्जा देते हैं। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण कला का नाम आता है जो विशेषीकृत है, जिसे हम आदिवासी कला के नाम से जानते हैं। परंतु यह जान लेना अतिआवश्यक है कि लोक कला तथा आदिवासी कला में पर्याप्त भिन्नता और विविधता होती है। आदिवासी कला का संबंध उस समुदाय से होता है जो किसी निश्चित भू-भाग में रहता है, एक विशेष भाषा बोलता है तथा जिसका समाज समतावादी है। अर्थात वह कला जो आदिवासियों द्वारा निर्मित या प्रदर्शित किया जाता है, उसे आदिवासी कला कि संज्ञा देते हैं।  इसके साथ यह एक कटु सत्य रहा है कि आदिवासियों के लिए कभी भी लोक यालोक कला शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था, बल्कि लोक व लोक कला शब्द का प्रयोग एक ऐसे जन समूह के लिए शुरू होता है जो समान्यतः गाँव व कस्बों में रहते हुए आदिवासियों से भिन्न जीवन बिताता रहा है। कहने का अर्थ यह है कि आदिवासियों को लोक शब्द से दूर रखा गया था और रखा जाता भी रहा है। उन्हें संवैधानिक नाम जनजाति से ही पूरे देश में जाना जाता है। इसी कारण इनके द्वारा प्रदर्शित कलाओं को जनजातीय कला कहा जाता है।
            जहाँ तक इस शोध पत्र कि बात है इसमें पूर्वाञ्चल (उत्तर-प्रदेश) कि एक प्रमुख लोक कला “धोबिया लोक कला” का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया गया है। धोबिया लोक कला एक प्रकार की जातिगत लोक कला है क्योंकि यह एक विशेष जाति धोबी से संबंधित है। धोबी जाति के लोग लगभग पूरे देश में मिलते हैं और उनके नामों में भिन्नता भी देखने को मिलती है। धोबी जाति समान्यतः कपड़े धोने का कार्य करती थी, इस कारणवश इसे धोबी अथवा धोने वाला नाम मिला। अपने सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था एवं अपने जीवन की कठिनाईयों को गीत, संगीत, नृत्य, कथा, विश्वास, मिथकों एवं मुहावरों-लोकोक्तियों के माध्यम से समाज के सामने प्रदर्शित करते थे। इनका यह व्यवहार कला के रूप में धीरे-धीरे उस जाति विशेष की पहचान बन गयी और उनकी कला लोक कला में परिवर्तित हो गई। वर्तमान समय में धोबिया लोक कला में विभिन्न प्रकार देखने को मिलते हैं। जैसे- धोबिया गीत, धोबिया संगीत, धोबिया नृत्य, धोबिया कथा, धोबिया विश्वास, धोबिया वाद्य-यंत्र, धोबिया वस्त्र, धोबिया गहने एवं मिथक इत्यादि।
            धोबिया लोक कला की उत्पत्ति एवं रूपों का अध्ययन करने से पता चलता है कि धोबिया लोक कला विभिन्न रूपों में आदिवासी कला के साथ समानता प्रदर्शित करता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि धोबिया लोक कला तथा आदिवासी कला में समानता और विभिन्नता किस प्रकार की है? क्योंकि धोबिया लोक कला के विभिन्न रूपों में आदिवासी कला के समान रूप देखने को मिलते हैं। अब हमारे सामने प्रश्न यह उठता है कि धोबिया लोक कला तथा आदिवासी कला में समानता क्यों है व किन-किन रूपों में है? दूसरा प्रश्न यह भी है कि इस लोक कला का सार्वभौमिकरण किस प्रकार हुआ है? चूँकि जब कोई कला किसी दूसरे समाज या समुदाय द्वारा अपनाया जाता है तो उसमें पारिस्थितिकी व समय के अनुरूप परिवर्तन भी होता है। यह भी जानने का प्रयास किया गया है कि वर्तमान समय में इस लोक कला पर आधुनिकता का क्या प्रभाव पड़ा है?
धोबिया लोक कला की विवेचना-
            धोबिया लोक कला के विभिन्न रूपों का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा है जिसमें आदिवासी कला से समानता और भिन्नता को विशेष ध्यान दिया गया है। लोक कलाकार तरह-तरह के गीतों एवं गाथाओं को तैयार करके लोगों का मनोरंजन करते हैं तथा अपनी संस्कृति के संबंध में जानकारी प्रदान कराते हैं। लोक कलाकार विशेष अवसरों पर जैसे- पर्व-त्यौहार, शादी-विवाह, जन्म-मृत्यु इत्यादि पर विशेष प्रकार की नाटक-नौटंकी करके भी लोगों का मनोरंजन करते हैं। लोक कलाओं के माध्यम से एक पूरे जन समुदाय की अभिज्ञानता[4], निरंतरता एवं सांस्कृतिक परिवर्तन को समझने में सहायता मिलती है। यह लोक कला अति प्राचीन लोक कला है क्योंकि इसकी उत्पत्ति तब से मानी जाती है जब से धोबी जाति का उद्भव हुआ है। प्रारम्भ में इनके मनोरंजन के साधन सीमित और सरल थे। इस जाति के लोगों का आदिवासी वर्ग तथा अपने से उच्च वर्ग के लोगों (पिछड़ी जाति एवं सामान्य वर्ग) से संबंध होता रहा है। क्योंकि उच्च वर्ग के लोगों के कपड़ों को धोने के कारण भी इनको समाज में सम्मान मिलता रहा है। इसी प्रकार धोबी जाति आदिवासी वर्गों से भी लगातार संपर्क में रहते थे, जिससे उन्हें आदिवासियों की संस्कृति को पास से देखने का मौका मिला था। जिसका परिणाम यह हुआ कि धोबी जाति के लोगों को अपना खाली समय और दिन भर के थकान व मनोभावों को आदिवासियों कि तरह कला के रूप में प्रस्तुत करने का रास्ता सुझा होगा, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने दिन-भर की परेशानियों एवं थकानों इत्यादि को सायंकाल के खाली समय में अपने पास-पड़ोसियों के साथ बांटना चाहता था। इस प्रकार इनका यह प्रदर्शन धीरे-धीरे लोक कला का रूप लेता चला गया चूँकि यह समुदाय आदिवासी नहीं था और न ही आदिवासी के कोई गुण थे। इसलिए समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने इन समूहों के लिए लोक तथा इनकी कला को लोक कला से सुशोभित किया। प्राचीन काल में इस कला को मनोरंजन और अपनी पहचान के रूप में सम्मान मिला जिसमें प्रास्थिति और भूमिका का प्रमुख स्थान था। परंतु धीरे-धीरे इस कला में भी परिवर्तन हुआ जिसमें व्यवसायीकरण ने प्रमुख भूमिका निभाई।
            अतः धोबिया लोक कला कि विवेचना तथा विश्लेषण करना अतिआवश्यक हो जाता है, जिसमें आदिवासी कला तथा आधुनिकता प्रमुख आधार है। आदिवासियों में व्याप्त विभिन्न अभिनय कलाओं के माध्यम से धोबिया लोक कला के रूपों का विश्लेषणात्मक विवेचना प्रस्तुत किया जा रहा है, जो निम्नलिखित है-
(1) धोबिया लोक गीत
            लोक गीत लोक साहित्य[5] का प्रमुख अंग है। सामूहिक जीवन के अवचेतन मन की अभिव्यक्ति जिसके माध्यम से की जाती है उसे लोक गीत कहते हैं।[6] जन सामान्य के हर्ष-विषाद, उमंग-उत्साह, हास-परिहास, आशा-निराशा, सपनों और आकांक्षाओं को लोक गीतों के माध्यम से सुना जा सकता है। सहानुभूति के स्तर पर इनका पूर्णरूपेण अनुभव किया जा सकता है। लोक गीतों का अस्तित्व तब तक जीवित रहेगा जब तक मानव का अस्तित्व विद्यमान है। (परमार, श्याम. 2003)
            धोबिया लोक गीत इन्हीं परम्पराओं पर आधारित एक शैली है जो धोबी जाति के मनोभावों को अभिव्यक्त करती है। जिस प्रकार आदिवासी गीत आदिवासीय समाज के विभिन्न पक्षों को लेकर गाये जाते हैं, ठीक उसी प्रकार धोबिया गीत भी निम्नलिखित पक्षों पर तैयार किए जाते हैं और गाये जाते हैं। जैसे- पर्व-त्यौहार के गीत, अतिथि सत्कार के गीत, कपड़े धोते समय के गीत, समूह गीत, भूत-प्रेत संबंधी गीत, पति-पत्नी संबंधी गीत, प्रेमी-प्रेमिका गीत, हँसी-मज़ाक के गीत, पशु संबंधी गीत, श्रमिकों के गीत, मौसम संबंधी गीत, जीवन की विभिन्न अवस्थाओं संबंधी गीत, नाटक-नौटंकी गीत इत्यादि।
            धोबिया गीतों के प्रकार में समय के साथ परिवर्तन भी देखने को मिलता है। जिस प्रकार आदिवासीय गीत मुख्यतः पुजा-पाठ, संस्कार, जादू-टोना, भूत-प्रेत, हास-परिहास, खेल-कूद, मनोरंजन तथा जीवन की विभिन्नता पर आधारित होते हैं। ठीक उसी प्रकार धोबिया गीत भी निर्मित होते हैं। अंतर सिर्फ इतना होता है कि निर्माता तथा गाने की शैली पर समय के साथ विभिन्न परिवर्तनकारी कारकों का प्रभाव पड़ता रहा है। जैसे- आधुनिकता तथा व्यवसायीकरण के कारण गीतों के धुनों, संरचना, शैली आदि पर फिल्मी गीतों का प्रभाव।
(2)       धोबिया नृत्य        
            नृत्य की परंपरा आदिम युग से चली आ रही है। जब से आदिमानव ने अपने भावों को अंग-संचालन द्वारा प्रकट करने का प्रयास किया, तभी से नृत्य कला का सूत्रपात हुआ। भाषा के विकास से पूर्व आदिम मानव ने अपने भावों को व्यक्त करने के लिए सांकेतिक भाषा का उपयोग करता था। तब से नृत्य शैली का प्रादुर्भाव माना जाता है। वर्तमान में यह सुसज्जित और जटिल हो गया है। इसी क्रम में धोबिया लोक नृत्य को को भी रखा जा सकता है, जिसे स्थानीय बोली में धोबिया नाच कहा जाता है। धोबिया कलाकार विशेष रूप से समाज में विशेष स्थान प्राप्त करता है, जो विभिन्न गीतों के आधार पर प्रतिक्रिया तथा अंग संचालन करके मनोरंजन करता है। यह आम तौर पर हास्यप्रद होता है परंतु कभी-कभी समाज के अति सूक्ष्मग्राही पक्षों पर भी अपने नृत्यों के माध्यम से समाज के सामने रखते हैं।
            जहाँ तक आदिवासी नृत्य की बात है, इसमें भी नर्तकियाँ और नर्तक मोहक वेश-भूषा से सज्जा करके नृत्य करते हैं। चेहरे पर विभिन्न प्रकार के सौंदर्ययुक्त पदार्थों का सेवन करते हैं। ठीक उसी प्रकार धोबिया लोक कलाकार (नर्तक/नर्तकियाँ) भी अपने शरीर को सौंदर्ययुक्त पदार्थों से सजाते हैं और विभिन्न प्रकार के वस्त्रों को धारण करके नृत्य करते है। आधुनिकता के इस युग में बाजार में उपलब्ध विभिन्न सौंदर्ययुक्त पदार्थों को कलाकारों द्वारा खूब पसंद किया जाता है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि कलाकार जीतने आकर्षक होंगे, लोगों में देखने की रुचि उतना ही अधिक रहती है।
(3)       धोबिया वाद्य-यंत्र
            किसी भी कला की रोचकता तभी बनी रहती है जब उसमें लोक वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता है। वाद्य यंत्र अर्थात बजने वाली वस्तुएं जिनसे निकलने वाली ध्वनि दर्शकों को लुभाती है। धोबिया लोक कला के प्रदर्शन में लोक वाद्य-यंत्रों का प्रमुख स्थान होता है। इन वाद्य-यंत्रों की प्रमुख विशेषता यह है कि सभी वाद्य-यंत्र देशज लोगों द्वारा तैयार किया जाता है। कलाकारों द्वारा प्रयोग किये जाने वाले वाद्य-यंत्रों का अपना एक सामाजिक महत्व होता है और उनके संबंध में कोई न कोई मिथक अथवा सामान्य कहानियाँ होती हैं जैसा आदिवासी वाद्य-यंत्रों में भी देखने को मिलता है। धोबिया वाद्य-यंत्रों में प्रमुख मृदंग (ढोलक), कसावर (पीतल का बर्तन तथा लकड़ी), छड़ (लोहे का बना), हरमुनिया, तुरही इत्यादि है। आधुनिकता के कारण अब बांसुरी एवं इलेक्ट्रिक वाद्य-यंत्र भी प्रयोग किए जा रहे हैं।
(4)         धोबिया वस्त्र एवं आभूषण   
            धोबिया लोक कलाकार इस कला को प्रदर्शित करने से पहले अपने शरीर को विभिन्न देशज वस्त्रों तथा आभूषणों से सजाते हैं। जो विशाल जन समुह (देखने वाले) के आकर्षण का केंद्र होता है। विशेष प्रकार के वस्त्रों में कुर्ती तथा घाघरा होता है जिसे लोक कलाकारों द्वारा स्वयं तैयार किया जाता है। घाघरे में चमकीले वस्तुओं का प्रयोग होता है। कुर्ती पर अनेकों रंग के छोटे-छोटे चकत्ते लगाए जाते हैं। घाघरा सामान्यतः लाल रंग का होता है जिससे वह दर्शकों की नजरों से दूर नहीं हो पता। इसके साथ ही साथ कमर में छोटी-छोटी घंटियों की माला भी पहनते हैं। आभूषण के रूप पीतल तथा देखावटी हार, कंगन, नथुनी, कान-बालि, पायल, अँगूठी इत्यादि को धारण करते हैं।
(5)         लोक मिथक तथा लोक कथाएँ
            जनजातीय मिथक तथा कथाएँ देवी-देवताओं, उत्पत्ति, भूत-प्रेत, राजा-रानी, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदी-पहाड़, पृथ्वी-समुद्र, गोत्र, टोटम, वंश, परिवार एवं समाज के नायक-नायिका इत्यादि से संबंधित होता है। जो कहानियों तथा विश्वासों के रूप में आगे बढ़ती जाती है। ठीक उसी प्रकार धोबिया मिथक, कथाएँ एवं विश्वास भी कहानियों, गीतों व कविताओं के माध्यम से समाज में व्याप्त हैं। जैसे- धोबी जाति के उत्पत्ति से संबंधित मिथक, व्यवसाय से संबंधित मिथक, पशुओं (विशेष रूप से गधा), नदियों, तालाबों इत्यादि से संबंधित मिथक इसके अलावा लोक नायकों (बलदेव धोबी, गिरधारी धोबी इत्यादि) से संबंधित मिथक एवं कहानियाँ भी प्रचलित है जिसे गीतों के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। जो लोक कथाओं एवं गाथाओं के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती रहती है। जैसे-
1) सिंधु घाटी सभ्यता के वारिस के रूप में धोबी जाति का मिथक।[7]
2) धोबी जाति का कोरवा जनजाति (छ.ग.) से संबंधित मिथक का प्रचलन।[8]
            इस प्रकार देखा जा सकता है कि धोबिया लोक कला के विभिन्न रूप हैं। यह लोक कला आदिवासी कला के विभिन्न रूपों से समानता रखता है तथा जन साधारण के समक्ष अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति अपनी पहचान के रूप में करता है। इसका अपना इतिहास है जो धोबी जाति की पहचान व संस्कृति का द्योतक है। परंतु आधुनिकता के दौर में जैसे सभी संस्कृतियाँ प्रभावित हुई हैं वैसे ही यह लोक कला भी परिवर्तित होती चली आ रही है। धोबिया लोक कला अब किसी जाति विशेष की कला नहीं रही बल्कि यह विभिन्न जाति के लोगों द्वारा भी प्रदर्शित किया जा रहा है। जिसके कारण यह लोक कला जातिगत लोक कला की विशेषता से अलग हो गयी है। इसका प्रमुख कारण व्यवसायीकरण है, जिसे विभिन्न लोगों (जातियों जैसे- SC, OBC, GEN.) ने लाभ कमाने के लिए उसके पारंपरिक रूपों में आधुनिक परिवर्तन करके अपना बना लिया है और उसे अत्यधिक मोहक एवं आकर्षक बनाकर प्रदर्शित कर रहे हैं।   
मैक्किम मैरिएट के अनुसार “जब लघु परंपरा के तत्व जैसे- संस्कार, पूजा-पाठ, कलाएं, प्रथाएँ आदि ऊपर की ओर बढ़ते हैं अर्थात फैलाव विस्तृत होता जाता है और जब यह बृहत परंपरा के स्तर तक पहुँच जाता है साथ में उनके मूल स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है तो इस प्रक्रिया को सार्वभौमिकरण कहते हैं। इसी प्रक्रिया के अंतर्गत लघु समूह या समूह के कुछ विशिष्ट सांस्कृतिक तत्व महान परंपरा के सांस्कृतिक तत्वों के साथ मिलकर उसके अभिन्न अंग बन जाते हैं।   
            धोबिया लोक कला धोबी जाति की पारंपरिक लोक कला है। परंतु धोबिया लोक कला के विभिन्न रूपों (जैसे- गीत, संगीत, नृत्य, वस्त्र, वाद्य-यंत्र, विश्वास, मिथक, कथाएँ इत्यादि) में आदिवासी कला के विभिन्न रूपों के बीच समानता देखा जा सकता है। जैसे- गीतों के निर्माण में, नृत्य के प्रारूपों में, वाद्य यंत्रों के प्रयोग में, वस्त्रों के प्रयोग में एवं लोक साहित्यों के रूप में इत्यादि। (चित्रानुसार)




  आदिवासी कलाएं जैसे- गीत, नृत्य, वाद्य-यंत्र, वस्त्र, विश्वास, मिथक, कथाएं, लोकोत्तियां, मुहावरे, साहित्य इत्यादि का संबंध आदिवासी समूह से होता है, जो एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में रहता है तथा उनका समाज समतावादी होता है। आदिवासी कलाओं में सरलता का स्वरूप प्रदर्शित होता है। अपनी संस्कृति, परम्पराओं, विश्वासों, मूल्यों, समस्याओं, आवश्यकताओं तथा प्रकार्यों को कला के रूपों में प्रदर्शित करते रहे हैं। जिसका प्रमुख उद्देश्य अपनी पहचान बनाए रखना तथा मनोरंजन करना था। धीरे-धीरे बाह्य समाज ने इनकी संस्कृति को जानने के लिए इनके जीवन में हस्तक्षेप किया और इनके सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं को अपनाने लगे। आदिवासियों की कलाओं में सरता होने के कारण बाह्य समाज के लोगों द्वारा अपनाने में मदद ली और जल्द ही अपना लिया। चूँकि जाति व्यवस्था में जातिगत व्यवसाय का प्रमुख स्थान रहा है जिसने आदिवासी कला को सीखने में प्रमुख भूमिका निभाई। दिन भर के थकान, चिंताओं, कठिनाइयों और मनोभावों को आदिवासियों के समान अभिव्यक्त करने का मौका मिला। इसमें अंतर सिर्फ इतना रहा कि वह अभिव्यक्ति उनकी स्वयं की थी। आदिवासियों द्वारा प्रदर्शित कला अब ग्रामीण तथा श्रमिक वर्ग के लोगों द्वारा अपनाया गया, लेकिन उसके स्वरूप को थोड़ा परिवर्तन करके। श्रमिक वर्ग के लोगों ने भी अपने जीवन की समस्याओं, आवश्यकताओं, प्रकार्यों, सुख-दुख इत्यादि मनोभावों को कला के माध्यम से प्रदर्शित किया। जिससे यह लाभ हुआ कि उन्हें अपने जीवन की परेशानियों एवं थकान को बहलाने का मौका मिला। इसके साथ ही साथ समाज के अन्य लोगों को अपने मनोभावों को समझने का मौका मिला। यह व्यवहार (कला) धीरे-धीरे ग्रामीण तथा श्रमिक वर्ग कि पहचान बन गयी और समाज के प्रबुद्ध वर्ग ने इस व्यवहार को जो कला के रूप जाना जाता था उसे आदिवासी कला से थोड़ा भिन्न पाया। इसलिए इसे एक अलग नाम लोक की “लोक कला” दिया। अब यह जनजातीय समाज से जातीय समाज, जनजाति से जाति तथा आदिवासी कला से लोक कला एवं आर्थिक कला का हिस्सा बन गया।
            वर्तमान समय में धोबिया लोक कला आधुनिकता एवं व्यवसायीकरण के कारण आर्थिक कला के रूप में भोजपुर क्षेत्र (उत्तर-प्रदेश का पूर्वाञ्चल) में प्रचलन में है। अब यह लोक कला केवल धोबी जाति कि नहीं रह गयी है। इसे अन्य जातियों जैसे- अनुसूचित जाति (चमार, पासी, खट्टिक) अन्य पिछड़ा वर्ग (बिंद, यादव, लोहार, पटेल), तथा सवर्ण जाति के लोगों द्वारा सीखा और प्रदर्शित किया जा रहा है। अर्थात लघु कला के तत्व विभिन्न रूपों में उच्च (वृहत) कला के रूपों में ऊपर की ओर बढ़ रहे हैं। कलाएं अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) से अनुसूचित जाति (धोबी जाति) और फिर पिछड़ी जाति (यादब, बिंद जाति) एवं सवर्ण जातिओं द्वारा अपनाया जा रहा है। जो सार्वभौमिकरण का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस प्रकार देखा जा सकता है कि धोबिया लोक कला वर्तमान में व्यवसायिक कला के रूप में महान परंपरा का अंग बन गया है।

जाति-जनजाति-सांतत्य
         डॉ॰ मजूमदार(1958) का मानना है कि जनजाति-जाति सातत्य के परिणाम स्वरूप प्रारम्भिक काल से ही जनजाति से जाति के रूप में शांत परिवर्तन सम्पन्न होते रहे हैं। यह परिवर्तन अनेक कारणों से संभव हुए। वर्तमान में अधिकांश निम्न या बहिर्गत जातियाँ पहले जनजातियाँ ही थी। समय-समय पर जाति तथा जनजाति में परिवर्तन होता रहता है, जिसका परिणाम यह होता है कि कुछ जातियाँ, जनजातियों के रूप में दिखती हैं, तो कुछ जनजातियाँ, जाति का लक्षण प्रदर्शित करती हैं। इसी प्रकार धोबी जाति भी लोक कला के माध्यम से जनजातियों के समान लक्षण प्रदर्शित कर रहे हैं, जो जाति-जनजाति-सांतत्य की अवधारणा को सत्यापित करते हैं। धोबी जाति द्वारा जाति-जनजाति-सांतत्य को प्रदर्शित करने वाले लक्षण निम्नलिखित हैं-
1.      जिस प्रकार आदिवासी का संबंध विशेष भौगोलिक क्षेत्र से होता है। ठीक उसी प्रकार धोबी जाति का भी एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र जैसे- तलबों या नदियों से विशेष संबंध होता है। इसका प्रमुख कारण यह माना जाता है कि इन्हें कपड़े धोने के लिए एक बहुत बड़े जलाशय की आवश्यकता होती है, जो ग्रामीण क्षेत्र के पास स्थित तालाबों या नदियों से पूर्ण होती है। धोबी जाति की लगभग सम्पूर्ण आर्थिक स्थिति इसी कार्य पर निर्भर होने के कारण इनका विशेष भौगोलिक क्षेत्र से संबंध अति घनिष्ठ होता है।
2.      धोबियों का समाज आदिवासियों की तरह ही समतावादी है, जिसमें किसी प्रकार का सामाजिक स्तरीकरण देखने को नहीं मिलता है।
3.      इनके समाज में लोक कलाकारों को विशेष प्रास्थिति प्राप्त होती है जो उस प्रास्थिति के अनुरूप विशेष भूमिका अदा करते हैं, जिस प्रकार आदिवासी समाज के मुखिया का होता है।
4.      धोबी समाज में सभी लोगों का एक समान पेशा होना जरूरी नहीं है।
5.       जाति की उत्पत्ति श्रम-विभाजन तथा व्यवसायिक आधार पर होती है। धोबी जाति के व्यावसायिक उत्पत्ति से संबंध के साथ ही साथ धोबी जाति की उत्पत्ति से संबन्धित मिथक भी मिलते हैं। जैसे- इनका संबंध कोरवा जनजाति (छ. ग.) से माना जाता है, जो बाद में धोबी जाति में परिवर्तित हो जाती है।[9]

निष्कर्ष-
            आज जिसे लोक कला कहा जाता है, वह 18वीं सदी से पहले अस्तित्व में नहीं थी बल्कि वह अपना अस्तित्व तलाश रही थी। लोक कला की स्वतंत्रता, मूल्यवत्ता और प्रभविष्णुता का कितना भी समर्थन क्यों न किया जाये, लेकिन एक अन्य सवाल अवश्य उत्पन्न होता है।– क्या लोक कला का कोई अपना इतिहास है? अथवा यह कुछ सामान्य तथ्यों से ही अपना बचाव करता रहेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत भूमि अनेकों लोक कलाओं से परिपूर्ण रही है। परंतु ऐसी कोई भी लोक कला नहीं है, जो आधुनिकता के प्रभाव से बच सकी हो। आधुनिकता तथा पूंजीवाद ने धोबिया लोक कला को भी नहीं छोड़ा है। व्यवसायीकरण ने धोबिया लोक कला की मूल कलाओं एवं कलाकारों को समाप्त करने का काम किया है, जिससे इनके अस्तित्व का खतरा बढ़ा है। इस लोक कला का ऐसा कोई भी पक्ष नहीं है जहाँ आधुनिकता ने अपने पैर नहीं रखे हैं।
            क्या यह कहा जा सकता है कि अब लोक कलाएं नहीं रह गई हैं? क्योंकि लोक कहे जाने योग्य कोई वस्तु बची ही नहीं। दरअसल पश्चिमी एवं विशेषकर एंग्लो-सैक्सन देशों के लिए यह सही बात है, क्योंकि इन देशों में न केवल औद्योगिक नगरों के जन समूह बल्कि खेती में लगे हुए लोगों में भी उन लोगों के समान कुछ दिखाई नहीं देता जिन्होंने पहले लोक कला को जीवित रखा था।
सुझाव-
            हीगेल के साथ-साथ डॉ. श्याम सुंदर दास ने भी किसी कला कि श्रेष्ठता का आधार सामग्री की मूर्तता या अमूर्तता माना है। चाहे वह ललित कला हो या उपयोगी कला के रूप में लोक कला। प्रत्येक लोक कला की श्रेष्ठता का आधार भी पृथक-पृथक होता है। कोई भी लोक कला अपने विशिष्ट रूपों, प्रमाणों, भावों, लावण्यों, सादृश्यों आदि गुणों के कारण विशिष्टता और श्रेष्ठता को प्राप्त करता है। लोक कला का विशेष संबंध लोक कलाकारों से होता है। क्योंकि किसी भी लोक कला में एक कलाकार की मनोभावनाओं समावेश होता है, जो उसकी अभिज्ञानता का द्योतक होता है। यदि किसी लोक कला को वास्तव में संरक्षित तथा परिष्कृत करना है तो सबसे पहले लोक कलाकारों के अस्तित्व को बचाना होगा। धोबिया लोक कला से संबंधित सुझाव निम्नलिखित हैं-
1-      लोक कलाकारों के नवबोध, नवरुचि तथा नई शैलीगत उद्भावना के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं है, जिससे वे आज भी हजारों साल पुरानी प्रणाली के आधार पर लोक कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। इसके लिए जरूरी है कि इन्हीं लोक कलाकारों को नवीन शैली में प्रशिक्षित किया जाय जिससे उन्हेंव स्वयं की पहचान बनाने का मौका विश्व स्तर पर प्राप्त हो सके।
2-      धोबिया लोक कला के विभिन्न स्वरूपों को विश्व कि आधुनिक कलाओं के बराबर सम्मान मिले।
3-      यहाँ पर हमें केवल एक लोक कला के संबंध में नहीं अपितु सम्पूर्ण लोक संस्कृति (लोक नाट्य, लोक नृत्य, लोक कला, लोक विश्वास, लोक संगीत, लोक गीत इत्यादि) के संदर्भ में सोचना होगा।
4-      उत्तर-प्रदेश के पूर्वाञ्चल क्षेत्र (जैसे- मिर्ज़ापुर, गाजीपुर, चंदौली, बलिया जिले इत्यादि) की विभिन्न लोक कलाओं को संग्रहीत करके उसके समाप्त होने के कारणों का पता लगाना तथा प्रोत्साहित करना होगा।
5-      लोक कलाकारों के भुखमरी तथा अस्तित्व को बचाना होगा। उनके द्वारा प्रदर्शित कलाओं को प्रशिक्षित करके पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण का माध्यम बनाना होगा।    

संदर्भ ग्रंथ सूची-
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द्विवेदी, हजारी प्रसाद. “जनपद पत्रिका”. अंक -1 पृ. 65.





[1]  वर्मा, महेंद्र. (2006). “भारतीय चित्र कला की परंपरा”. दिल्ली: भारतीय कला प्रकाशन.
[2]  द्विवेदी, हजारी प्रसाद. जनपद पत्रिका. अंक -1 पृ. 65
[3]  हाऊजर, अर्नाल्ड. (2008). “कला का इतिहास दर्शन”. दिल्ली: ग्रंथ शिल्पी प्रकाशन.
[4]  वह व्यवस्थित पहचान जो अनुसरण पर आधारित हो, जिसमें किसी व्यक्ति/समाज के प्रति स्थापित मनोभावों की समझ को मुख्य आधार माना जाता है जो उसकी आंतरिक और बाह्य पहचान बनाती है”।
[5] लोक साहित्य मौखिक परंपरा है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है। (बदरीनारायण, 2004.)
[6]  त्रिपाठी, सूर्यकांत. (2013). “लोक का अवलोकन”. दिल्ली: आर्य प्रकाशन.
[7] वियोगी, नवल. (2001). “भारत की आदिवासी नाग सभ्यता”. दिल्ली: सम्यक प्रकाशन.

[8] वियोगी, नवल. (2001). “चमार जाति का गौरवशाली इतिहास”. दिल्ली: सम्यक प्रकाशन.
[9] दास, भगवान एवं सिंह, सतनाम. (2011). “धोबी समाज का संक्षिप्त इतिहास”. दिल्ली: सम्यक प्रकाशन.